Friday, March 16, 2012

बेटी या बहू ? - सतीश सक्सेना

हमारी बेटी 
आज गुरदीप सिंह, अपनी सोफ्टवेयर इंजीनियर बेटी को लेकर घर आये थे , वे अपनी बेटी को गौरव और विधि से मिलवाना चाहते थे जिससे उनकी बेटी को भविष्य में अपने कैरियर को, लेकर उचित मार्गदर्शन मिल सके !
हाथ में टेनिस रैकिट और शर्ट पाजामा पहने विधि ने दरवाजा खोलकर उनका स्वागत किया ! चाय आने पर गुरदीप ने मेरी बहू के बारे में पूंछा कि वह कहाँ है तो हम सब अकस्मात् हंस पड़े कि वे विधि को पहचान ही नहीं पाए कि साधारण घर की बेटी लग रही, इस घर की नव विवाहिता बहू भी वही है !
और मुझे बहुत अच्छा लगा कि मैं अपनी इच्छा पूरी करने में कामयाब रहा ....

लोग नयी बहू पर, अपने ऊपर भुगती, देखी, बहुत सारी अपेक्षाएं, आदेश लाद देते हैं और न चाहते हुए भी, आने वाले समय में, घर की सबसे शक्तिशाली लड़की को, अपने से, बहुत दूर कर देते हैं !

किसी और घर के अलग सामाजिक वातावरण में पली लड़की को  , उसकी इच्छा के विपरीत दिए गए आदेशों के कारण, हमेशा के लिए उस बच्ची के दिल में अपने लिए कडवाहट घोलते, सास ससुर यह समझने में बहुत देर लगाते हैं कि वे गलत क्या कर रहे हैं  ?

अपनी बहू को,आदर्श बहू बनाने के विचार लिए, अपने से कई गुना समझदार और पढ़ी लिखी लड़की को होम वर्क कराने की कोशिश में, लगे यह लोग, जल्द ही सब कुछ खोते देखे जा सकते हैं ! 


घर से बाहर प्रतिष्ठित देशी विदेशी कंपनियों में काम कर रहीं, ये  पढ़ी लिखीं, तेज तर्रार लड़कियां, अपने सास ससुर की आँखों में स्नेह और प्यार की जगह, एक प्रिंसिपल और अध्यापिका का रौब पाकर, उनके प्रति शायद ही कोई स्नेह अनुभूति, बनाये रख पाती हैं ! 


समय के साथ इन बच्चों की यही भावना सास ससुर के प्रति, उनकी आवश्यकता के दिनों ( वृद्धावस्था ) में  उपेक्षा बन जाती है जबकि उस समय, उन्हें अपने इन समर्थ बच्चों से,  मदद की सख्त जरूरत होती है , और यही वह कारण है जब आप ,वृद्ध अवस्था में अक्सर बहू बेटे द्वारा माता पिता  के प्रति उपेक्षा और दुर्व्यवहार की शिकायतें अखबारों में सुनने को मिलती हैं !

अक्सर हम अपने कमजोर समय ( वृद्धावस्था )में बेटे बहू को भला बुरा कहते नज़र आते हैं, मगर हम भूल जाते हैं कि बहू की नज़र में सास -ननद, अक्सर विलेन का रूप लिए होती है , जिन्होंने उनके हंसने  के दिनों में (विवाह के तुरंत बाद ), उसे प्यार न देकर वे दिन तकलीफदेह  बना दिए और वह यह सब, न चाहते हुए भी भुला नहीं पाती !

शादी के पहले दिन से, जब लड़की नए उत्साह से, अपने नए घर को स्वर्ग बनाने में स्वप्नवद्ध होती है तब हम उसे डांट ,डपट और नीचा दिखा कर, अपने घर का सारा भविष्य नष्ट करने की, बुनियाद रख रहे होते हैं !

मेरे कुछ संकल्प :

-मुझे ख़ुशी है कि मैं अपनी बहू को यह अहसास दिलाने में कामयाब रहा हूँ कि वह ही घर की वास्तविक मालकिन है, इस घर में वह अपने फैसले ले सकने के लिए पूरी तरह से मुक्त है ! उसको मैंने पारिवारिक रीतिरिवाज़ और बड़ों को सम्मान देने की दिखावा करतीं, घटिया प्रथाओं आदि से, पहले दिन से, मुक्त रखा है !

-विधि ज्ञानी ,  विधि सक्सेना और गौरव सक्सेना , गौरव ज्ञानी का कर्तव्य पूरा करें और यह सिर्फ कास्मेटिक दिखावा न होकर, इसे ईमानदारी एवं विश्वास के साथ अमल में लाया जाए !

-विधि के आते ही, मेरा इच्छा उसका लासिक आपरेशन करवा कर, बचपन से लगाये ,  भारी भरकम चश्मे को उतरवाना था जो उसने हँसते हुए मान लिया , १३ मार्च को डॉ अमित गुप्ता द्वारा किये गए  इस शानदार आपरेशन का परिणाम देखकर ,हम सब आश्चर्य चकित रह गए थे ! विधि की माँ (विमला जी ) की  शिकायत थी  कि पिछले पांच साल से उनका किया ,अनुरोध इसने कभी  नहीं माना था तो विधि का जवाब था कि पापा (मैंने ) ने मुझसे अनुरोध नहीं किया वह तो आदेश था और मैं मना, कैसे कर सकती थी ?

-विधि के माता पिता को कभी यह अहसास न हो सके कि गौरव उनका अपना पुत्र  नहीं है , उनके स्वास्थ्य और हर समस्या का ध्यान रखना, विधि के कहने से पहले, गौरव की पहली प्राथमिकता होनी चाहिए !

- राजकुमार ज्ञानी ( समधी )से मैंने वायदा किया है कि विधि सक्सेना के घर में उनका उतना ही अधिकार होगा जितना कि सतीश सक्सेना का और वे इसे मेरा वचन माने जिसे मैं मरते दम तक निभाऊंगा !

-मुझे ख़ुशी है कि दिव्या ने बहू को बेटा समझ प्यार करने में मेरा पूरा साथ दिया और अब चार बेटों ( बेटा बहू और पुत्री दामाद )वाले इस घर में हर समय ठहाके गूंजते सुनाई पड़ रहे हैं  जिसके लिए मैं परम पिता परमात्मा और अपने मित्रों की शुभकामनाओं के प्रति आभारी हूँ !
अन्य घरों की प्यारी बच्चियों  (अपनी बहुओं ) के साथ मैं 
उपरोक्त व्यक्तिगत पोस्ट लिख दी ताकि सनद रहे ...

Monday, March 5, 2012

इस होली पर क्यों न साथियो,आओ सबको गले लगा लें -सतीश सक्सेना

अपने घर में ही आँखों पर 
कैसी पट्टी , बाँध रखी है  ! 
इन  लोगों ने जाने कब से ,
मन में रंजिश पाल रखी है !
इस होली पर क्यों न सुलगते,
दिल के ये अंगार बुझा दें !
मुट्ठी भर कुछ रंग,फागुन में, अपने घर में भी, बिखरा दें 

मानव जीवन पाकर कैसे , 
बुद्धि गयी है,बिलकुल मारी ! 
खनक चूड़ियों की सुनते ही 
शंख ध्वनि से, लगन हटायी !
अपनों की वाणी सुनने की,
क्यों न आज से चाह जगा लें !
इस होली पर माँ पापा की ,चरण धूल को शीश लगा लें !

बरसों मन में गुस्सा बोई
ईर्ष्या  ने ,फैलाये  बाजू ,
रोते  गाते,हम लोगों ने 
घर बबूल के वृक्ष उगाये 
इस होली पर क्यों न साथियों,
आओ रंग गुलाल लगा लें ?
भूलें उन कडवी बातों को, आओ  अब  घर द्वार सजा लें !!

कितना दर्द दिया अपनों को 
जिनसे हमने चलना सीखा  !
कितनी चोट लगाई उनको 
जिनसे हमने,हँसना सीखा  !
स्नेहिल आँखों  के  आंसू , 
कभी नहीं जग को दिख पायें !
इस होली पर,घर में आकर,कुछ गुलाब के फूल चढ़ा लें !

जब से घर से दूर  गए हो ,
ढोल नगाड़े , बेसुर लगते !
बिन प्यारों के,मीठी गुझिया,
उड़ते रंग, सब फीके लगते !
मुट्ठी भर गुलाल फागुन में, 
फीके चेहरों को महका  दें !
सबके संग ठहाका लेकर,अपने घर को स्वर्ग  बना लें !

Thursday, February 23, 2012

नेह निमंत्रण -सतीश सक्सेना

आशीर्वाद दें, इन बच्चों को कि वे दोनों मिलकर एक सुनहरे भविष्य का निर्माण कर सकें !
आप सबको आदर सहित......

इस नेह पत्रिका के जरिये 
आमंत्रण भेज रहा सब को !
अंजलि भर, आशीषों की है 
बस चाह, हमारे बच्चों को !
दिल से निकले आशीर्वाद ,
दुर्गम पथ  सरल  बनायेंगे  !
विधि-गौरव के नवजीवन में, सौभाग्य पुष्प बिखराएंगे !

दिव्या सतीश का कुल गौरव 
एक विदुषी को घर लाया है
विमला के घर, स्नेह सहित ,
विश्वास ,राज  का पाया है !
अब हाथ पकड़ विधि का गौरव,
कुल का सम्मान बढ़ाएंगे !
जिस नेह को दुनिया याद रखे, वह प्यार  सभी में बाँटेंगे !

चंदा कुटीर में गरिमा और,
हँसते इशान,रोली, अक्षत  
अर्चना थाल,नूपुर, कंगन ,
जलकलश,खड़े दरवाजे पर 
विधि रथ आने पर स्वागत में, 
ये सबसे  पहले  जायेंगे  !
गौरैया कोयल चहक चहक कर, स्वागत गीत सुनायेंगे  !

आशीष नेह से दें इनको, 
समृद्ध,यशस्वी हों दोनों !
पैरों की आहट से इनके ,
झंकार उठे , वीरानों में  !
गुलमोहर के वृक्षों ने भी,
उस दिन को इकट्ठे फूल किये 
कहते  हैं, उस दिन झूम झूम, फूलों को वे  बरसाएंगे  !



Tuesday, February 21, 2012

सम्मान और श्रद्धा -सतीश सक्सेना

दूसरों के धार्मिक अनुष्ठान में शामिल होना मुझे हमेशा अच्छा लगता है , मेरा प्रयत्न रहता है कि वहां उनके अनुष्ठानों के प्रति पूरा सम्मान भी, भाग लेने पर ,ईमानदारी के साथ व्यक्त किया जाए !

अधिकतर ऐसे पूजा आयोजनों में दुखी और कष्टों में सताए लोग उपस्थित होते हैं जो अपने ईश के प्रति सम्मोहन युक्त श्रद्धा के साथ, वहां हिस्सा लेते देखे जाते हैं ! ईश आराधना में तल्लीनता इतनी होती है कि वे अक्सर अपने आपको परमहंस अवस्था में पाते हैं ! गुरु ( पथ प्रदर्शक) के सामने, गहरे ध्यान में, भाव विह्वल, आंसू बहाते यह लोग, सामान्य एवं कमजोर लोगों पर निस्संदेह, गहरा चमत्कारिक प्रभाव छोड़ते हैं !

यह मानवीय तन्मयता और भाव विह्वलता प्रसंशनीय होती है , इस  स्थिति को प्राप्त करने वाले, अक्सर अपने आपको पारिवारिक मोहमाया से मुक्त महसूस करते हैं और शनैः शनैः घर परिवार की जिम्मेवारियों से कट कर, अपने आपको पंथ मार्ग में प्रवाहित पाते हैं !

गुरु और धर्म प्रचारक वहां बैठे लोगों को उत्प्रेरित करने के लिए, लोगों से गवाहियाँ और दुहाईयाँ दिलवाते हैं कि गुरु पूजा और उनके सानिंध्य में उन्हें कैसे भयानक बीमारियों से मुक्ति मिली ! गुरु की सम्मोहक आवाज और हर वाक्य समाप्ति के साथ मिलती समर्थन ध्वनि , वहां के वातावरण को सम्मोहित बनाने में कामयाब रहती है   !

मेरे जैसे  पूर्ण वयस्क बच्चों के पिता और पारिवारिक माया मोह में  पड़े व्यक्ति (व्रह्म राक्षसी योनि ) के लिए, जहाँ यह भयावह  :-) थी,  वहीँ गुरु प्रभावित लोगों के लिए, उनके द्वारा किये गए ईश आवाहन से मानसिक, शारीरिक कष्टों से मिली मुक्ति, इस विश्वास को  और गहरा करने में कामयाब थी   !

शायद यह श्रद्धा और विश्वास, मानव जीवन सुरक्षा के लिए बहुत आवश्यक है.... 

Monday, February 6, 2012

हम बुलबुल मस्त बहारों की, हम बात तुम्हारी क्यों मानें ? -सतीश सक्सेना

एक दिन सपने में पत्नी श्री से कुछ ऐसा ही सुना था ,समझ नहीं आया कि यह सपना था कि हकीकत ....हास्य रचना का आनंद
महसूस करें, मुस्कराएं..... ठहाका लगाएं ! 
हो सकें तो सुधर भी जाएँ ... ;-)

जब से ब्याही हूँ साथ तेरे
लगता है मजदूरी कर ली
बर्तन धोये घर साफ़ करें

बुड्ढे बुढिया के पाँव छुएं !
जब से पापा ने शादी की,  

फूटी किस्मत, अरमान लुटे  !
जब देखो तब बटुआ खाली, हम बात तुम्हारी क्यों माने ?

ना नौकर है , न चाकर  है,  
ना ड्राइवर है न वाच मैन !
घर बैठे कन्या दान मिला

ऐसे भिखमंगे चिरकुट को,
कालिज पार्टी,तितली,मस्ती,
बातें लगती सपने जैसी !
चौकीदारी इस घर की कर, हम बात तुम्हारी क्यों मानें

पत्नी , सावित्री  सी  चहिए,  
पतिपरमेश्वर की पूजा को ! 
गंगा स्नान  के मौके  पर  ,
जी करता धक्का  देने को !
 

तुम पैग हाथ लेकर बैठो , 
हम गरम गरम भोजन परसें !
हम आग लगा दें दुनिया में, हम बात तुम्हारी क्यों माने ?

हम लवली हैं ,तुम भूतनाथ
हम जलतरंग, तुम फटे ढोल,
हम जब चलते, धरती झूमें 
तुम हिलते चलते गोल गोल, 
तुम आँखे दिखाओ, लाल हमें, 
हम  हाथ जोड़  ताबेदारी  ?
हम धूल उड़ा दें दुनिया की, हम बात तुम्हारी क्यों मानें ?


ये शकल कबूतर सी लेकर
पति परमेश्वर बन जाते हैं !
जब बात खर्च की आए तो
मुंह पर बारह बज जाते हैं !

पैसे निकालते दम निकले , 
महफ़िल में बनते शहजादे ! 
हम बुलबुल मस्त बहारों की, हम बात तुम्हारी क्यों मानें ?

Thursday, January 5, 2012

पापा को भी प्यार चाहिए -सतीश सक्सेना

शक्ति चुकी है, चलते चलते 
थकी उमर में ,पैर न उठते  !
जीवन  की संध्या  में,  ऐसे  
बेमन, भारी  कदम न उठते  !
क्या खोया , क्या पाया मैंने ,
परम पिता का वंदन करते !
वृन्दाबन से, मन मंदिर में, मुझको भी घनश्याम चाहिए !

बचपन में ही छिने खिलौने 
और छिनी माता की गोदी  ,
निपट अकेले शिशु, के आंसू
ढूंढ रहे, बचपन  से  गोदी  ! 
बिना किसी की उंगली पकडे , 
जैसे तैसे चलना सीखा  !
ह्रदय विदारक उन यादों से, मुझको भी अब मुक्ति चाहिए  ! 
  
रात   बिताई , जगते जगते 
बिन थपकी के सोना कैसा ?
ना जाने कब नींद  आ गयी, 
बिन अपनों के जीना कैसा ?
खुद ही आँख पोंछ ली अपनी,
जब जब भी, भर आये आंसू
आज नन्द के राजमहल में , मुझको भी  गोपाल  चाहिए !

बरसों बीते ,चलते चलते ! 

भूखे प्यासे , दर्द छिपाते  !
तुम सबको मज़बूत बनाते 
मैं हूँ ना, अहसास दिलाते !
कभी अकेलापन, तुमको 
अहसास न हो, जो मैंने झेला ,
जीवन की आखिरी डगर में, मुझको भी एक हाथ चाहिए !

जब जब थक कर चूर हुए थे ,

खुद ही झाड़ बिछौना सोये 
सारे दिन, कट गए भागते ,
तुमको गुरुकुल में पहुंचाए 
अब पैरों पर खड़े सुयोधन !
सोचो मत, ऊपर से निकलो !
वृद्ध पिता की भी शिक्षा में, एक  नया अध्याय चाहिए !

सारा जीवन कटा भागते 

तुमको नर्म बिछौना लाते  
नींद तुम्हारी ना खुल जाए
पंखा झलते  थे , सिरहाने  
आज तुम्हारे कटु वचनों से, 
मन कुछ डांवाडोल  हुआ है  !
अब लगता तेरे बिन मुझको, चलने का अभ्यास चाहिए !


( इस रचना पर अली सय्यद साहब द्वारा दिए गए कमेन्ट के जरिये , मेरे गीत पर पाठकों के १०००० कमेन्ट पूरे हुए ! आभार आप सबका ! )

Saturday, December 17, 2011

अब शब्दों की जिम्मेदारी -सतीश सक्सेना


पिछली पोस्ट में प्रवीण पाण्डेय की टिप्पणी पढ़कर देखता ही रह गया ...
"मैंने तो मन की लिख डाली, 
अब शब्दों की जिम्मेदारी  ! "और उनको एक पत्र लिखा ...
प्रवीण भाई,
आपकी दी हुई उपरोक्त दो लाइने अच्छी लगी हैं ! इस गीत को आगे पूरा करने का दिल है ...इजाज़त दें तो  ... :-) 
और जवाब तुरंत आया ....
आपको पूरा अधिकार है, निश्चय ही बहुत सुन्दर सृजन होगा, कुछ पंक्तियाँ लिखी हैं मैने भी पर भाव अलग हैं। प्रतीक्षा रहेगी आपके गीत की। सादर ,   प्रवीण
प्रवीण पाण्डेय,मेरी नज़र में बहुत ऊंचा स्थान ही नहीं रखते अपितु उनकी रचनाओं से हमेशा कुछ न कुछ सीखने को मिलता है ! हिंदी भाषा का यह सौम्य सपूत वास्तव में बहुत आदर योग्य है ! 
उनके प्रति आभार के साथ, इस रचना का आनंद लें ...अगर आप लोग आनंदित हुए तो रचना सफल मानी जायेगी !

रचनाकारों की नगरी में 
मैंने कुछ रंग लगाये हैं 
अंतर्मन से ही नज़र पड़े 
ऐसे  अरमान जगाये हैं  !
मानवता गौरवशाली हो 
तब झूम उठे, दुनिया सारी !
मैंने तो मन की लिख डाली, अब शब्दों की जिम्मेदारी  !

ये शब्द ह्रदय से निकले हैं 

इन पर न कोई संशय आये
वाक्यों  के अर्थ बहुत से हैं,
अपने  भावों से पहचानें !
मैंने तो अपनी रचना की , 
हर पंक्ति तुम्हारे नाम लिखी !
जाने क्या अर्थ निकालेगी, इन छंदों का,  दुनिया सारी !

असहाय, नासमझ जीवों  की 

आवाज़ उठाना लाजिम है !
मानव की कुछ करतूतों से  
आवरण उठाना वाजिब है !
पाशविक प्रवृत्ति का नाश करे,
मानवता हो, मंगल कारी
इच्छा है, अपनी भूलों को , स्वीकार करे दुनिया सारी !

जिस तरह  प्रकृति का नाश ,

करें खुद ही मानव की संताने
फल,फूल,नदी,झरते झरने
यादें लगती, बीते  कल  की  !
गहरा प्रभाव छोड़े अपना , 
कुछ ऐसी करें कलमकारी !
प्रकृति की अनुपम रचना का, सम्मान करे दुनिया सारी !

मृदु भावों का अहसास रहे ,

पिछली पीढ़ी का ध्यान रहे
बचपन से, मांगे  मुक्त हंसी
स्वागत सबका, सम्मान रहे !
दुश्मनी रंजिशें भूल अगर,
झूमेगी तब महफ़िल सारी !
यदि गैरों की भी पीड़ा का ,अहसास करे दुनिया भारी !

बच्चों को  टोकें , हंसने से !

कलियों को रोकें खिलने से
हर हृदय कष्ट में आ जाता 
आस्था पर प्रश्न उठाने से !
क्रोधित मन, कुंठाएँ पालें, 
ये बुद्धि गयी  कैसे मारी ! 
गुरुकुल की, शिक्षाएँ भूले , यह कैसी है पहरेदारी !

कुछ ऐसा राग रचें मिलकर

सुनकर उल्लास उठे मन से
कुछ ऐसा मृदु संगीत  बजे 
सब बाहर आयें ,घरोंदों से !
यदि गीतों में  झंकार न हो,
तो व्यर्थ रहे महफ़िल सारी  !
हर रचना के मूल्यांकन में इन शब्दों की जिम्मेदारी !

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