इस तकलीफ में कोई बोलता क्यों नही ?
कम से कम साहित्य तथा प्रकाशन क्षेत्र में कार्य करने बाले लोगों में, संकीर्ण विचारधारा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए ! मुझे आश्चर्य है कि जब प्रतिष्ठित विद्वान् भी असंयत भाषा का उपयोग करने लगते हैं ! यह कौन सी विद्वता है और हम क्या दे रहे हैं, अपने पढने वालों को ? अगर हम सब मिलकर अपनी रचनाओं में १० % स्थान भी अगर, सर्व धर्म सद्भाव पर लिखें , तो इस देश में हमारे मुस्लिम भाई कभी अपने आपको हमसे कटा हुआ महसूस नहीं करेंगे, और हमारी पढ़ी लिखी भावी पीढी शायद हमारी इन मूर्खताओं को माफ़ कर सके !
दोनों भाइयों ने इस मिटटी में जन्म लिया, और इस देश पर दोनों का बराबर हक है ! हमें असद जैदी और इरफान सरीखे भारत पुत्रो के अपमान पर शर्मिन्दा होना चाहिए !
कवि और लेखक स्वाभाविक तौर पर भावुक और ईमानदार होते हैं , विस्तृत ह्रदय लेकर ये लोग समाज में जब अपनी बात कहने जाते हैं तो वातावरण छंदमय हो उठता है , कबीर की बिरादरी के लोग हैं हमलोग, न किसी से मांगते हैं न अपनी बात मनवाने पर ही जोर देते हैं, नफरत और संकीर्ण विचार धारा से इनका दूर दूर तक कोई रिश्ता नही हो सकता ! ऐसे लोगों पर जब प्रहार होता है तो कोई बचाने न आए यह बड़ी दर्दनाक स्थिति है ! न यह हिंदू हैं न मुसलमान , इन्हे सिर्फ़ कवि मानिये और इनके प्रति ग़लत शब्द वापस लें तो समाज उनका आभारी होगा ! एक कविता पर गौर करिए ....
बहुत दिनों से देवता हैं तैंतीस करोड़
हिस्से का खाना-पीना नहीं घटता
वे नहीं उलझते किसी अक्षांश-देशांतर में
वे बुद्धि के ढेर
इन्द्रियां झकाझक उनकीं
सर्दी-खांसी से परे
ट्रेन से कटकर नहीं मरते......
उपरोक्त कविता लिखी है विजय शंकर चतुर्वेदी जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकार ने और इसे प्रकाशित किया है " पर मैं हाथ तक नहीं लगाऊंगा चीज़ों को नष्ट करने के लिए " नाम के शीर्षक से "कबाड़खाना " में ! http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/07/blog-post_14.html
ताज्जुब है कि कोई पहाड़ नहीं टूटा , न तूफ़ान आया , कोई प्रतिक्रिया नही हुई , कहीं किसी को यह रचना अपमानित करने लायक नहीं लगी। और लोगों ने, सारी रचनाओं की, चाहे समझ में आईं या नहीं, तारीफ की, कि वाह क्या भाव हैं, और कारण ?
-कि अशोक पाण्डेय तथा चतुर्वेदी हमारे अपने हैं !
-लिखने से क्या होता है, हमारे धर्म में कट्टरता का कोई स्थान नहीं ! अतः कोई आहत नहीं हुआ ! इस कविता से सबको कला नज़र आई !
मजेदार बात यह है कि यह उपरोक्त कविता लोगों की प्रतिक्रिया जानने को ही लिखी गयी थी, कि आख़िर असद जैदी जैसे मशहूर साहित्यकार की लोगों ने यह छीछालेदर करने की कोशिश क्यों की ! और जवाब मिल भी गया !
एक ख़त मिला मुझे गुजरात से रजिया मिर्जा का उसे जस का तस् छाप रहो हूँ , बीच में से सिर्फ़ अपनी तारीफ़ के शब्दों को हटा दिया है ( मेरी तारीफ यहाँ छापना आवश्यक नही है ) जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ ...
नमस्ते सतिश जी, आपका पत्र पढा। पढकर हैरान नहीं हुं क्यों कि मै ऐसे लोगों को साहित्यकार मानती ही नहिं हुं जो लोग धर्मो को, ईंसानों को बाटते चलें। मै तो ---------------------------------------------------------------------------------------------------आपकी पहेचान है। उन लोगों को मैं' साहित्यकार' नहिं परंतु एसे विवेचकओं की सुचिमें रखुंगी जो अपनी दाल-रोटी निकालने के लिये अपने आपको बाज़ार में बिकने वाली एक वस्तु बना देते है। मैं अस्पताल में काम करती हुं । मेरा फ़र्ज़ है कि मै सभी दीन-दुख़ियों का एक समान ईलाज़ करुं, पर यदि मैं अपने कर्तव्य को भूल जाऊं तो इसमें दोष किसका? शायद मेरे "संस्कार" का ! हॉ, सतिष जी अपने संस्कार भी कुछ मायने रखते है। हमको हमारे माता-पिता, समाज, धर्म, इमान ने यही संस्कार दीये है कि ईंसान को ईंसानों से जोडो, ना कि तोडो।सतिष जी आपकी बडी आभारी हुं जो आपने एसा प्रश्न उठाया। मैं एक अपनी कविता उन मेरे भाइ-बहनों को समर्पित करती हुं जो अपने 'साहित्य' का धर्म निभा रहे है। सतीश आपसे आग्रह है मेरी इस कविता को अपने कमेन्ट में प्रसारित करें। आभार
दाता तेरे हज़ारों है नाम...
कोइ पुकारे तुज़े कहेकर रहिम,
और कोइ कहे तुज़े राम।...
दाता..........
क़ुदरत पर है तेरा बसेरा,
सारे जग पर तेरा पहेरा,
तेरा 'राज़'बड़ा ही गहेरा,
तेरे ईशारे होता सवेरा,
तेरे ईशारे हिती शाम।...
दाता......
ऑंधी में तुं दीप जलाये,
पथ्थर से पानी तुं बहाये,
बिन देखे को राह दिख़ाये,
विष को भी अमृत तु बनाये,
तेरी कृपा हो घनश्याम।...
दाता.........
क़ुदरत के हर-सु में बसा तु,
पत्तों में पौन्धों में बसा तु,
नदीया और सागर में बसा तु,
दीन-दु:ख़ी के घर में बसा तु,
फ़िर क्यों में ढुंढुं चारों धाम।...
दाता..........
ये धरती ये अंबर प्यारे,
चंदा-सुरज और ये तारे,
पतज़ड हो या चाहे बहारें,
दुनिया के सारे ये नज़ारे,
देख़ुं मैं ले के तेरा नाम।.........
दाता........
ऐसी कवितायें कबीर दास जी लिखते थे , मैं रजिया जी का हार्दिक शुक्रगुजार हूँ , यह कविता प्यार का एक ऐसा संदेश देती है जो कहीं देखने को नहीं मिलता ! यह गीत गवाह है की कवि की कोई जाति व् सम्प्रदाय नहीं होता
वह तो निश्छलता का एक दरिया है जो जब तक जीवन है शीतलता ही देगा !रजिया मिर्जा की ही कुछ पंक्तियाँ और दे रहा हूँ !
"झे मालोज़र की ज़रुर क्या?
मुझे तख़्तो-ताज न चाहिये !
जो जगह पे मुज़को सुक़ुं मिले,
मुझे वो जहाँ की तलाश है।
जो अमन का हो, जो हो चैन का।
जहॉ राग_द्वेष,द्रुणा न हो।
पैगाम दे हमें प्यार का ।
वही कारवॉ की तलाश है।"
मुझे बेहद अफ़सोस है कि इस विषय पर बहुत कम लोग बोलने के लिए तैयार है , मैं मुस्लिम भाइयों की मजबूरी समझता हूँ, भुक्ति भोगी होने के कारण उनका न बोलना या कम बोलना जायज है परन्तु, सैकड़ों पढ़े लिखे उन हिंदू दोस्तों के बारे में आप क्या कहेंगे जो अपने मुस्लिम दोस्तों के घर आते जाते हैं और कलम हाथ में लेकर अपने को साहित्यकार भी कहते हैं !
आज कबाड़ खाना पर असद जैदी के बारे में तथाकथित कुछ हिंदू साहित्यकारों की बातें सुनी, शर्मिंदगी होती है ऐसी सोच पर ! मेरी अपील है उन खुले दिल के लोगों से , कि बाहर आयें और इमानदारी से लिखे जिससे कोई हमारे इस ख़ूबसूरत घर में गन्दगी न फ़ेंक सके !
कम से कम साहित्य तथा प्रकाशन क्षेत्र में कार्य करने बाले लोगों में, संकीर्ण विचारधारा की कोई जगह नहीं होनी चाहिए ! मुझे आश्चर्य है कि जब प्रतिष्ठित विद्वान् भी असंयत भाषा का उपयोग करने लगते हैं ! यह कौन सी विद्वता है और हम क्या दे रहे हैं, अपने पढने वालों को ? अगर हम सब मिलकर अपनी रचनाओं में १० % स्थान भी अगर, सर्व धर्म सद्भाव पर लिखें , तो इस देश में हमारे मुस्लिम भाई कभी अपने आपको हमसे कटा हुआ महसूस नहीं करेंगे, और हमारी पढ़ी लिखी भावी पीढी शायद हमारी इन मूर्खताओं को माफ़ कर सके !
दोनों भाइयों ने इस मिटटी में जन्म लिया, और इस देश पर दोनों का बराबर हक है ! हमें असद जैदी और इरफान सरीखे भारत पुत्रो के अपमान पर शर्मिन्दा होना चाहिए !
कवि और लेखक स्वाभाविक तौर पर भावुक और ईमानदार होते हैं , विस्तृत ह्रदय लेकर ये लोग समाज में जब अपनी बात कहने जाते हैं तो वातावरण छंदमय हो उठता है , कबीर की बिरादरी के लोग हैं हमलोग, न किसी से मांगते हैं न अपनी बात मनवाने पर ही जोर देते हैं, नफरत और संकीर्ण विचार धारा से इनका दूर दूर तक कोई रिश्ता नही हो सकता ! ऐसे लोगों पर जब प्रहार होता है तो कोई बचाने न आए यह बड़ी दर्दनाक स्थिति है ! न यह हिंदू हैं न मुसलमान , इन्हे सिर्फ़ कवि मानिये और इनके प्रति ग़लत शब्द वापस लें तो समाज उनका आभारी होगा ! एक कविता पर गौर करिए ....
बहुत दिनों से देवता हैं तैंतीस करोड़
हिस्से का खाना-पीना नहीं घटता
वे नहीं उलझते किसी अक्षांश-देशांतर में
वे बुद्धि के ढेर
इन्द्रियां झकाझक उनकीं
सर्दी-खांसी से परे
ट्रेन से कटकर नहीं मरते......
उपरोक्त कविता लिखी है विजय शंकर चतुर्वेदी जैसे प्रतिष्ठित साहित्यकार ने और इसे प्रकाशित किया है " पर मैं हाथ तक नहीं लगाऊंगा चीज़ों को नष्ट करने के लिए " नाम के शीर्षक से "कबाड़खाना " में ! http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/07/blog-post_14.html
ताज्जुब है कि कोई पहाड़ नहीं टूटा , न तूफ़ान आया , कोई प्रतिक्रिया नही हुई , कहीं किसी को यह रचना अपमानित करने लायक नहीं लगी। और लोगों ने, सारी रचनाओं की, चाहे समझ में आईं या नहीं, तारीफ की, कि वाह क्या भाव हैं, और कारण ?
-कि अशोक पाण्डेय तथा चतुर्वेदी हमारे अपने हैं !
-लिखने से क्या होता है, हमारे धर्म में कट्टरता का कोई स्थान नहीं ! अतः कोई आहत नहीं हुआ ! इस कविता से सबको कला नज़र आई !
मजेदार बात यह है कि यह उपरोक्त कविता लोगों की प्रतिक्रिया जानने को ही लिखी गयी थी, कि आख़िर असद जैदी जैसे मशहूर साहित्यकार की लोगों ने यह छीछालेदर करने की कोशिश क्यों की ! और जवाब मिल भी गया !
एक ख़त मिला मुझे गुजरात से रजिया मिर्जा का उसे जस का तस् छाप रहो हूँ , बीच में से सिर्फ़ अपनी तारीफ़ के शब्दों को हटा दिया है ( मेरी तारीफ यहाँ छापना आवश्यक नही है ) जिसके लिए मैं उनका आभारी हूँ ...
नमस्ते सतिश जी, आपका पत्र पढा। पढकर हैरान नहीं हुं क्यों कि मै ऐसे लोगों को साहित्यकार मानती ही नहिं हुं जो लोग धर्मो को, ईंसानों को बाटते चलें। मै तो ---------------------------------------------------------------------------------------------------आपकी पहेचान है। उन लोगों को मैं' साहित्यकार' नहिं परंतु एसे विवेचकओं की सुचिमें रखुंगी जो अपनी दाल-रोटी निकालने के लिये अपने आपको बाज़ार में बिकने वाली एक वस्तु बना देते है। मैं अस्पताल में काम करती हुं । मेरा फ़र्ज़ है कि मै सभी दीन-दुख़ियों का एक समान ईलाज़ करुं, पर यदि मैं अपने कर्तव्य को भूल जाऊं तो इसमें दोष किसका? शायद मेरे "संस्कार" का ! हॉ, सतिष जी अपने संस्कार भी कुछ मायने रखते है। हमको हमारे माता-पिता, समाज, धर्म, इमान ने यही संस्कार दीये है कि ईंसान को ईंसानों से जोडो, ना कि तोडो।सतिष जी आपकी बडी आभारी हुं जो आपने एसा प्रश्न उठाया। मैं एक अपनी कविता उन मेरे भाइ-बहनों को समर्पित करती हुं जो अपने 'साहित्य' का धर्म निभा रहे है। सतीश आपसे आग्रह है मेरी इस कविता को अपने कमेन्ट में प्रसारित करें। आभार
दाता तेरे हज़ारों है नाम...
कोइ पुकारे तुज़े कहेकर रहिम,
और कोइ कहे तुज़े राम।...
दाता..........
क़ुदरत पर है तेरा बसेरा,
सारे जग पर तेरा पहेरा,
तेरा 'राज़'बड़ा ही गहेरा,
तेरे ईशारे होता सवेरा,
तेरे ईशारे हिती शाम।...
दाता......
ऑंधी में तुं दीप जलाये,
पथ्थर से पानी तुं बहाये,
बिन देखे को राह दिख़ाये,
विष को भी अमृत तु बनाये,
तेरी कृपा हो घनश्याम।...
दाता.........
क़ुदरत के हर-सु में बसा तु,
पत्तों में पौन्धों में बसा तु,
नदीया और सागर में बसा तु,
दीन-दु:ख़ी के घर में बसा तु,
फ़िर क्यों में ढुंढुं चारों धाम।...
दाता..........
ये धरती ये अंबर प्यारे,
चंदा-सुरज और ये तारे,
पतज़ड हो या चाहे बहारें,
दुनिया के सारे ये नज़ारे,
देख़ुं मैं ले के तेरा नाम।.........
दाता........
ऐसी कवितायें कबीर दास जी लिखते थे , मैं रजिया जी का हार्दिक शुक्रगुजार हूँ , यह कविता प्यार का एक ऐसा संदेश देती है जो कहीं देखने को नहीं मिलता ! यह गीत गवाह है की कवि की कोई जाति व् सम्प्रदाय नहीं होता
वह तो निश्छलता का एक दरिया है जो जब तक जीवन है शीतलता ही देगा !रजिया मिर्जा की ही कुछ पंक्तियाँ और दे रहा हूँ !
"झे मालोज़र की ज़रुर क्या?
मुझे तख़्तो-ताज न चाहिये !
जो जगह पे मुज़को सुक़ुं मिले,
मुझे वो जहाँ की तलाश है।
जो अमन का हो, जो हो चैन का।
जहॉ राग_द्वेष,द्रुणा न हो।
पैगाम दे हमें प्यार का ।
वही कारवॉ की तलाश है।"
मुझे बेहद अफ़सोस है कि इस विषय पर बहुत कम लोग बोलने के लिए तैयार है , मैं मुस्लिम भाइयों की मजबूरी समझता हूँ, भुक्ति भोगी होने के कारण उनका न बोलना या कम बोलना जायज है परन्तु, सैकड़ों पढ़े लिखे उन हिंदू दोस्तों के बारे में आप क्या कहेंगे जो अपने मुस्लिम दोस्तों के घर आते जाते हैं और कलम हाथ में लेकर अपने को साहित्यकार भी कहते हैं !
आज कबाड़ खाना पर असद जैदी के बारे में तथाकथित कुछ हिंदू साहित्यकारों की बातें सुनी, शर्मिंदगी होती है ऐसी सोच पर ! मेरी अपील है उन खुले दिल के लोगों से , कि बाहर आयें और इमानदारी से लिखे जिससे कोई हमारे इस ख़ूबसूरत घर में गन्दगी न फ़ेंक सके !
वाकई साहित्य बांटने का नहीं, जोड़ने का काम करता है. लेकिन उत्तर आधुनिकता के इस घोर संक्रमणकाल में यही सब देखने को मिलेगा. सृजन का कैनवास तो है ये पहले से ही एक-दूसरे पर उछाले गए कीचड़ से सराबोर है.आप क्या कलाकारी करेंगे.
ReplyDeleteसाहित्य की यही खासियत है की ये एक दूसरे को जोड़ना सिखाता है बांटना नही,बहुत खूब लिखा है आपने बस एक request है,font का साइज़ थोड़ा बड़ा कर दें...thanks
ReplyDeleteसतीश जी
ReplyDeleteआपकी संवेदनशीलता को प्रणाम! इस पूरे प्रकरण में मैं अपनी बातें अपने ब्लॉग पर कह चुका हूं. आप से एक विनती है. जिस कविता को आप मेरी कह रहे हैं असल में वह हमारे मित्र श्री विजयशंकर चतुर्वेदी की लिखी हुई है. ख़ाकसार ने तो बस अपने ब्लॉग पर उसे प्रकाशित भर किया. यहां आप ने ठीक पहचाना कि इस के पीछे की मंशा क्या थी.
आप से निवेदन है कि अपनी पोस्ट में थोड़ा सा सुधार करें और कवि का नाम बदल दें. साथ ही लो लिंक आपने मोहल्ले का दिया है, उसे भी ठीक कर दें क्योंकि कविता कबाड़ख़ाने में छपी है. इस का लिंक यह है: http://kabaadkhaana.blogspot.com/2008/07/blog-post_14.html
बाक़ी आपकी हर एक बात से सहमति है. मिथिलेश जी की भी और रक्शंदा जी की भी बातें क़ाबिल-ए-ग़ौर हैं.
आपकी प्रतिबद्धता बनी रहे. मेरी शुभकामनाएं.
और हां, अपने पसन्दीदा ब्लॉग्स में कबाड़ख़ाने को जगह देने का शुक्रिया भी.
ReplyDeleteअशोक भाई !
ReplyDeleteआप यहाँ तशरीफ़ लाये आपका धन्यवाद्, भूल सुधार कर ली गई है ! आप जो कार्य अपने ब्लाग ( कबाड़खाना )पर कार्य रहें हैं, समाज आपका आभारी रहेगा !
मुस्लिम रचनाकारों के साथ ऐसा शुरू से ही होता आरहा है.कुछ दिनों पहले नासिर शर्मा को कटहरे में लाने की कोशिश की गयी थी और अब असद जैदी.
ReplyDeleteये तो नामवर लोग हैं.इनके बाद की नस्ल में कई मुस्लिम हिंदी लेखन में हैं लेकिन उनकी चर्चा शायद ही कभी की जाती हों.आजकल आरिफ की चर्चा है .उसकी वजह ये है कि इंग्लिश में लिखकर वो पहले ही नाम हासिल कर चुके थे.
असग़र वजाहत,अब्दुल बिस्मिल्लाह और नासिर शर्मा आदि के बाद अनवर सुहैल,ज़ेब अख़तर,जाकिर अली,समेत कई लोग हैं जिहोने अच्छी कहानी लिखी ,इसी तरह असद जैदी के बाद शहंशाह आलम, अनवर सुहैल , मजीद और इस खाकसार के अलावा कई लोग नए अंदाजे-बयान में कविता के क्षेत्र में हैं ,लेकिन इनका नाम लेना भी लोगों को मंज़ूर नहीं.मुझे कहने में कोई हिचक या संकोच नहीं कि समाजवाद,साम्यवाद और सेकुलर रटने वाले लोग ही व्यवहार में ज्यादा सामंतवादी और संघी मानसिकता के होते हैं.ये हमारा जाती तजरबा है.कुछ एक अच्छे लोग भी हैं लेकिन वो खुद मुख्यधारा से बाहर कर दिए गए हैं.
कुछ बुजुर्ग और जवान साथियों के इसरार पर मैं ने भी एक पाण्डुलिपि तैयार की और हिंदी अकादमी में जमा की.वहां से पुस्तक-प्रकाशन के लिए स्वीक्रति मिल गयी.अब छपे कहाँ से.आखिरकार वरिष्ठ गीतकार रामकुमार कृषक अपने शब्दालोक प्रकाशन से मेरा कविता-संग्रह छापने को तैयार हों गए.
उनकी राय से एकाध पुरानी हटाकर नयी कविता शामिल कर दी गयी.
प्रकाशन के बाद पुस्तक जब अकादमी में जमा करायी तो वहां से सिर्फ एक कविता को शामिल करने की वजह पूछी गई.और दूसरी कविता को लेकर कोई सवाल नहीं.
उनका कहना था कि जमा पाण्डुलिपि में कोई रद्दो-बदल नहीं की जा सकती.
तमाम जानने वालों ने कहा कि अक्सर लोग ऐसा करते हैं.और मुझसे भी सिर्फ एक के बारे ही सवाल क्यों तलब किये गए.
आखिर मेरी किताब कि १२३ प्रतियाँ वहां अकादमी कि दीमक खाने को जमा हों तो गयीं लेकिन अकादमी की आर्थिक सहायता अब तक लंबित है .हांलांकि मैंने अपने स्तर पर उनके पत्रका उत्तर भी दिया.मेरे पत्र के बाद उनका कोई पत्र नहीं आया.हाँ एक दिन अकादमी के ही अफसर हरिसुमन बिष्ट जी का फ़ोन आया कि मैं अपनी किताबें वहां से ले आऊँ.यानी अब ग्रांट नहीं मिलने वाली .
इस घटनाक्रम से हमारे निकट के करीब तमाम वामपंथी मित्र वाकिफ हैं .लेकिन सिवाय कृषकजी ke किसी ने कोई सवाल नहीं उठाया.उन्होंने ने भी इसलिए उठाया कि उनका पैसा फंसा हुआ tha.लेकिन हमसे प्रकाशन में खर्च आधी से ज्यादा राशि ले लेने के बाद वो भी खामोश ho गए.
दरअसलवो कविता बाबरी मस्जिद को केंद्र में रख कर लिखी hui है और उसमे वामपंथियों पर भी सवाल हैं.
हिंदी लेखन-पत्रकारिता में जान खपा रहे मुस्लिम साथियों की दर्द-ए-दास्तान बहुत तवील है भाई .फिर कभी.
कहीं नागवार गुजरी हों तो क्षमा करेंगे.
हिन्दी सिर्फ़ हिन्दुओं की भाषा नहीं, बल्कि सारे देश की जबान है, अगर हमारे मुस्लिम भाइयों ने, अपनी मादरी जबान, उर्दू पर, इसे तरजीह देकर इसे खुशी के साथ अपनाया है तो इसका कारण ,देश के लिए उनका अपनापन और सब कुछ करने के अरमान है ! विपरीत परिस्थितियों में हिन्दी का अध्ययन कर हिन्दी के विद्वानों में शामिल होना यह कोई मामूली बात नहीं ! जहाँ हमें आज आगे बढ़ कर, अपने इन छोटे भाइयों का शुक्रिया अदा करना चाहिए था वहीं उल्टा हम उन पर छींटा कशी कर रहे हैं !
ReplyDeleteचंद बरस पहले जहाँ कभी हिन्दी का एक भी मुस्लिम लेखक नज़र नहीं आता था वहीं आज नासिर शर्मा, असद जैदी, असग़र वजाहत,अब्दुल बिस्मिल्लाह, शहंशाह आलम, अनवर सुहैल , मजीद और ख़ुद शहरोज़ जैसे लोग चर्चा में हैं ! तकलीफ तो इन्हें उर्दू जबान के नुमाइंदों से मिलनी चाहिए थी पर मिल रही है उनसे, जिन्होंने इन्हे गले लगाना चाहिए !
हमें गर्व होना चाहियें अपने देश के इन मुस्लिम हिन्दी विद्वानों पर, जो सही मायनों में इस देश कि संस्कृति का एक हिस्सा बनकर, इसे हर तरह आगे बढ़ाने में मदद कर रहें हैं !
शहरोज भाई !मैं आपको यह विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मेरे जैसे हजारो दोस्त, और सच्चे भारतीय हैं जो इस दर्द में आपके साथ हैं, भले ही वह परोक्ष रूप में सामने नहीं दिखाई पड़ रहे ! मेरा यह भी विश्वास है कि एक दिन हिन्दी जगत से वह आदर - सम्मान आपको जरूर मिलेगा जिसके आप हक़दार हैं !
मुझे बेहद खेद है, कि भूल से इस लेख का शीर्षक असद जैदी और इरफान के जगह पर असद जैदी और इमरान हो गया था , अपनी गलती सुधरने के साथ साथ मैं अपने उन तमाम मित्रो से शिकायत कर रहा हूँ जो अपना कीमती समय मेरे ब्लाग पर देते हैं , उन्होंने मुझे यह गलती नहीं बताई ! इरफान के बारे में मैं पिछली पोस्ट पर लिख चुका हूँ ! फिर भी लिंक दे रहा हूँ
ReplyDeleteअसद जैदी और इरफान !
http://satish-saxena.blogspot.com/2008/06/blog-post_16.html