"...............हिंदी लेखन-पत्रकारिता में जान खपा रहे मुस्लिम साथियों की दर्द-ए-दास्तान बहुत तवील है भाई ।फिर कभी. कहीं नागवार गुजरी हों तो क्षमा करेंगे."
आपका अनुज
शहरोज
उपरोक्त लाइने एक मर्म स्पर्शी ख़त का हिस्सा है ,जो शहरोज ने मुझे लिखा हैं ! शहरोज एक हिन्दी विद्वान्, जिससे मेरा परिचय सिर्फ़ चंद खतों तक सीमित है, जिसने मेरी रचनाओं को छपवाने के लिए, अपनी सहायता का वायदा किया, उस दिन मुझे यह बिल्कुल आभास नहीं था की जो अपनी रचनाओं को छपवाने के लिए ख़ुद परेशान है, वह अपनी परेशानी भूल कर मेरी मदद को आगे आ रहा है ! प्रकाशकों और सरकारी तंत्र का चक्कर लगाते हुए भी शहरोज, हम जैसे अनजान लोगों की मदद में तत्पर नजर आते हैं !
"शब्द सृजन" को लिखे गए मेरे एक लाइन के पत्र ( ६ जुलाई ०८ ) "मेरे निम्न लिंक्स पर क्लिक कर, अगर छपने योग्य हों तो कृपया सूचित करें ! मैं अपना मूल्यांकन करने मैं असमर्थ हूँ " का शहरोज़ ने इस प्रकार जवाब दिया,
"रचनाकार होने और प्रकाशनों में काम करने के दोरान मिले अनुभव से ये जाना कि पुस्तक प्रकाशन और खरीद बिक्री , फिर लेखकों की रोयल्टी में कितनी बेईमानी शैतानी होती है .ऐसा नहीं है कि कथित मुख्य धारा के नामवर लेखक इन से अनजान हों .चकित करने वाला और शोक की सूचना ये है कि कई जगहों पर ये नामी-गरामी साहित्यकार प्रकाशकों की मदद करते ही दिखलाई देते हैं .यदि आपका कोई आका नहीं है तो पुस्तक प्रकाशन के लिए शायद ही कोई प्रकाशक मिले"इन सारी विषम परिस्थितियों के मद्देनज़र हम कुछ नवजवान मित्रों ने प्रकाशन योजना की शुरुआत की है .-हमारा उद्देश्य लाभ अर्जन न होकर साहित्य -सेवा कहूँ तो अत्युक्ति नहीं .-ये एक समान धर्मा युवा रचनाकारों का अपना मंच है "
पिछले १२ दिनों में लिखे, शहरोज़ का हर ख़त सहेजने योग्य है, दूसरों की मदद में तत्पर, हिन्दी भाषा की सेवा में लगा, भारत का यह सपूत, नौजवानों में एक आदर्श कायम करेगा, ऐसा मेरा विश्वास है !
अपने देश के समाज की मुख्य धारा में आने के लिए जद्दोजहद करते हुए, अपने इन मुस्लिम बच्चों को देख, मेरी मां का दिल आज रो रहा होगा ! कहीं नही लगता कि यह वही देश है जिसकी सहिष्णुता की हम दुहाई देते कही नहीं थकते,
अभी बहुत काम बाकी है....... बरसों पहले, जब देश में जबानी एकता की दुहाई दी जा रही थी, कोई सोच भी नही पाता होगा कि उर्दू जैसी खूबसूरत भाषा के आँगन में पले और बड़े हुए, हमारे ये बच्चे एक दिन हिन्दी भाषा के उत्थान के लिए, हिन्दी भाषियों के साथ कंधे से कन्धा मिला कर आगे चलेंगे ! और आज ये चल ही नही रहें हैं, हिन्दी के महा विद्वानों में से एक हैं, मगर चंद हिन्दी भाषी, इन्हे रास्ता चलते, गिराने का कोई मौका हाथ से नहीं जाने देते ! संकीर्ण मन यह विश्वास ही नहीं कर पा रहा कि यह भी इस क्षेत्र के जानकर हो सकते हैं और हमसे बेहतर भी हो सकते हैं !
हिन्दी सिर्फ़ हिन्दुओं की भाषा नहीं, बल्कि सारे देश की जबान है, अगर हमारे मुस्लिम भाइयों ने, अपनी मादरी जबान, उर्दू पर, इसे तरजीह देकर इसे खुशी के साथ अपनाया है तो इसका कारण ,देश के लिए उनका अपनापन और सब कुछ करने के अरमान है ! विपरीत परिस्थितियों में हिन्दी का अध्ययन, कर हिन्दी के विद्वानों में शामिल होने की कोशिश..... यह कोई मामूली बात नहीं ! जहाँ हमें आज आगे बढ़ कर, अपने इन छोटे भाइयों का शुक्रिया अदा करना चाहिए था वहीं उल्टा हम उन पर छींटा कशी कर रहे हैं !चंद बरस पहले जहाँ कभी हिन्दी का एक भी मुस्लिम लेखक नज़र नहीं आता था वहीं आज नासिर शर्मा, असद जैदी, असग़र वजाहत,अब्दुल बिस्मिल्लाह, शहंशाह आलम, अनवर सुहैल , मजीद और शहरोज़ जैसे लोग चर्चा में हैं ! तकलीफ तो इन्हें उर्दू जबान के नुमाइंदों से मिलनी चाहिए थी पर मिल रही है उनसे, जिन्होंने इन्हे गले लगाना चाहिए ! हमें गर्व होना चाहियें अपने देश के इन मुस्लिम हिन्दी विद्वानों पर, जो सही मायनों में इस देश कि संस्कृति का एक हिस्सा बनकर, इसे हर तरह आगे बढ़ाने में मदद कर रहें हैं !
मैं अपने देश के विशाल ह्रदय को अच्छी तरह से जानता हूँ , और अपने मुस्लिम भाइयों को यह विश्वास दिलाना चाहता हूँ कि मेरे जैसे हजारो दोस्त, और सच्चे भारतीय हैं जो इस शुरूआती दर्द में आपके साथ देंगे , भले ही वह परोक्ष रूप में सामने नहीं दिखाई पड़ रहे ! मेरा यह भी विश्वास है कि एक दिन हिन्दी जगत से वह आदर - सम्मान आपको जरूर मिलेगा जिसके आप हक़दार हैं !
मेरा यह मानना है , लेखक तथा कवि , चाहे वह किसी भाषा के क्यों न हों , संकीर्ण स्वाभाव के हो ही नहीं सकते ! संकीर्ण स्वभाव का अगर कोई लेखक है तो वह सिर्फ़ पैसा कमाने के लिए, बना हुआ लेखक है उसे आम पाठक , उन्मुक्त ह्रदय से कभी गले नहीं लगायेगा ! ऐसे व्यक्तियों को लेखक नहीं कहा जाता ! वे सिर्फ़ अपने ज्ञान का दुरुपयोग करने आए है और ढोल बजाकर चले जायेंगे ! कवि ह्रदय, समाज में अपना स्थान सम्मान के साथ पाते हैं और शान के साथ पाते हैं !
जहाँ ह्रदय में धारा बहती
प्रेम भरे अरमानों की,
प्यार हिलोरे लेता रहता,
वहीं रचा जाता है गीत
नहीं द्वेष पाखंड दिखावा
नही किसी से मन में बैर
जहाँ नही धन का आड्म्बर,
वहीं रचा जाता है गीत !
सरल भाव से सबको देखे
करे सदा सबका सम्मान
निश्छल मन और दृढ विश्वास,
वहीं रचा जाता है ,गीत !
प्रिये गीत की रचना करने
पहला कवि जहाँ बैठा था
निश्चय ही वसुधा के मन में,
फूट पड़ा होगा संगीत !
कविता नहीं प्रेरणा जिसकी
गीत नहीं भाषा है दिल की
आशा और रुझान जहाँ पर
प्रिये उसे कहते हैं गीत !
लेखन में भी धार्मिक भेद-द्वेष है? यह मुझे ज्ञात न था।
ReplyDeleteखैर, समाज का विभाजन हर स्तर पर प्रभाव डाल रहा होगा, यह मुझे समझ लेना चाहिये था।
अच्छा लिखा आपने, और इसने नया कुछ बताया मुझे।
लेखन तो लेखन है वह भी वर्ग जाति में बँटा होगा .यह सोचना भी अच्छा नही लगता है
ReplyDeleteविचार योग्य है इस लेख में कई बातें ..
यह जानना रोचक हो सकता है और मुडी गडाए भकुओं के लिये रीवीलिंग कि मुसलमानों को कितने साहित्य अकादमी पुरस्कार मिले.
ReplyDelete-इकबाल राय
आज साठ वर्ष बाद भी मुसलमान देश की मुख्य धारा का हिस्सा नहीं बन पाये हैं तो यह शर्म की बात है. पर इस में दोष किस का है? आप कहते हैं 'भारत मां के मुस्लिम बच्चे', यह बहुत अच्छी बात है. पर यह मुस्लिम बच्चे क्या भारत को मां कहते हैं? 'वंदे मातरम' कहना उनके मजहब के ख़िलाफ़ है. सरकारी स्कूलों में जो खाना मिलता है उसे मुस्लिम बच्चों के मां-वाप इस लिए अपने बच्चों को खाने के लिए मना कर देते हैं क्योंकि वह खाना एक हिंदू संघठन के द्बारा बनाया गया है. अल्पसंख्यकवाद का नारा कौन लगाता है? इस आधार पर ब्लेकमेलिंग करना क्या सही है? भारत मां सब बच्चों को समान प्यार देती है, पर यह मुस्लिम बच्चे ही उसे मां नहीं मानते.
ReplyDeleteहमे तो सुरेश चन्द्र गुप्ता जी की बात ठीक लगी, जब बच्चा ही मां को मां ना माने, तो मां कया कर सकती हे,धर्म से बडा देश होता हे, ओर जमीन हमारी मां हे , यह मे नही पुरी दुनिया कहती हे,मेरे दोस्तो मे ऎसे मुस्लिम भी हे जिन्हे उर्दु आती ही नही, लेकिन हिन्दी मुझ से अच्छी बोलते हे,मुस्लिम पर शक कोई नही करता, यह देश भी इन का उतना ही हे जितना मेरा,ओर आप का.क्या एक हिन्दु सुखी हे,क्या एक सिख या ईसाई सुखी हे,सभी एक जेसे दुखी हे,फ़िर बार बार अकेले मुस्लिम को आगे क्यो लाया जाता हे,हम एक बहस बार बार क्यो करते हे मिल कर इस दुख से क्यो नही लडते??
ReplyDeleteआपके प्रयास सराहनीय हैं।
ReplyDeleteदीपक भारतदीप
ठीक है साहब ! यहाँ ५ व्यक्तियों में बहस छिडी है ! ये शुभ है !
ReplyDeleteऔर व्यापक बहस होनी चाहिए ! पर इससे इस समस्या का हल निकलेगा क्या ? इस समस्या की जड़े कही और है ! जैसा मैं सोचता हूँ और जैसा मैंने व्यवहार में पाया है शायद ही इन दोनों कोमो के लोगो को आपसी व्यवहार में कोई परेशानी होती हो ! बल्की मैंने तो आपस में मदद गार ही पाया है फ़िर भी.....
आप संवेदनशील हैं और प्रबुद्ध भी.ब्लॉग देखा.जल्द ही विस्तार से लिखूंगा.फिलवक्त हफीज बनारसी का शे'र :
ReplyDeleteतंग-जाहिद नज़र ने मुझे काफिर समझा
और काफिर ये समझता है मुसलमाँ हूँ मैं.
ये हम जैसे तमाम लोगों की पीडा है.
सरल भाव से सबको देखे
ReplyDeleteकरे सदा सबका सम्मान
निश्छल मन और दृढ विश्वास,
वहीं रचा जाता है ,गीत !
--यही पूरी बात है.
एक अच्छा और विचारणीय आलेख.
lekhan main bhi jaat paat aa gaya hai
ReplyDeletekalam ki kalamkaar ki soch aur likhne ki shely mayne nahi rakhti soch kar dukh hua
haan ab tak ye to jaanti thi ki paison ke bina kuch nahi hota magar
jaat paat bhi dukh de rahi rodhe ataka rahi hai ye sun kar dukh hua bhaut dukh hua
kaahs ki is sabse log upar aa sake aur jinhone gyaan ka sanskrti ka bidha uthaya hai wo use pura kar sake
kitna ajeeb hai na jo insaan sabki taraf madad ka haath badha raha ho use bhi achhayiyo ka sila nahi milta
सतिश जी. आपके ब्लोग द्वारा मैं सुरेशजी को कहना चाहुंगी कि कुछ मुठ्ठीभर लोगों का इल्ज़ाम सारी कोम्युनिटी पर क्यॉ? मैं भी ईस्लाम धर्म पालती हुं पर मैं पहले भारतीय भी हुं। हमारी संस्था में देश के हर राष्ट्रिय त्यौहार पर वंदेमातरम और जनगण मुज़से ही शुरु होता है। क्या हमें और सर्टिफीकेट देना है अपने भारतीय होने पर?हर मज़हब में लिख़ा है अपने वतन पर वफ़ादार रहना चाहिये।कौन कहता है हमारे बच्चे स्कुलों में ख़ाना नहिं खाते ? सुरेशजी सिर्फ़ पीछ्डे/अनपढ लोगों की तरफ़ मत देख़ो! हम तो होली-दिवाली, नवरात्री, मुहर्रम, ईद, नाताल, नवरोज़ हर त्योहार मनाते है! लोगों को जोडने का काम करो। किसी ने कोई प्रष्न उठाया तो सोचो कि एसा क्यों? गहराई में झांको। सतिशजी को भला क्या फ़ायदा यह लिख़ने से? वो तो जो महसूस करते है लिखते है।दिपक भारतदीप, रंजना जी, ग्यानदत्तजी और उदनतश्तरी का आभार।
ReplyDeleteरजिया की बातों से मैं सहमत हूँ.कुछ लोग गर मूर्ख हैं या अशिक्षित हैं तो उसका खाम्याज़ा और क्यों भुगतें.और ये सरासर गलफहमी है की वे मुख्धारा में शामिल नहीं होते.मैं पूछना चाहती हूँ ये मुख्धारा क्या बला है?
ReplyDeleteसतीश जी का आभार, उन्हों दर्द को समझा और एक मंच पर लाकर सवाल खडा किया.
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ReplyDeleteGood day!
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