मानव कुल में रहते हम लोग, शायद अपने सांस्कृतिक पारिवारिक गुणों को भूलते जा रहे हैं ! पीढ़ियों से चलता आया परस्पर पारिवारिक स्नेह, आज न केवल दुर्लभ नज़र आता है , बल्कि एक चालाकी और चतुरता का भाव अवश्य सब जगह नज़र आता है , जिसके चलते हम लोग एक दूसरे के प्यार पर शक करते हुए भी, साथ रहने को बाध्य होते हैं !
पारिवारिक व्यवस्था में सबसे पहले बहू का स्थान आता है , यह नवोदित लड़की, आने वाले समय में इस घर की मालकिन होगी इस तथ्य को लोग कभी याद ही नहीं करना चाहते न कोई उसे यह अहसास दिलाता है कि वह घर में प्रथम सदस्य का दर्ज़ा महसूस कर सके ! छोटे छोटे फैसले लेते समय भी, वह बच्ची अपनी सास अथवा पति के मुँह देखने को मजबूर रहती है और अक्सर परिवार के लोग इस बात पर खुश होते हैं कि बहू आज्ञाकारी मिली है ! शुरुआत के दिनों में, अपने ही घर में कोई निर्णय न ले सकने की, उस घुटन का अहसास, करने का कोई प्रयत्न नहीं करता ! समय के साथ ,अपने मन को अभिव्यक्त न कर पाने की तड़प, न चाहते हुए भी उस बच्ची को इस नए परिवार से दूरी बनाये रखने को, पर्याप्त आधार देने के लिए, काफी होती है !
इस प्रकार एक अनचाहा कड़वा बीज, घर के आँगन में कब लग गया, कोई नहीं जान पाता और हम लोग समय समय पर, अनजाने में, इसे खाद पानी और देते रहते हैं !
जहाँ तक माँ बाप का सवाल है वे अपनी ही असुरक्षा में घिरे रहते हैं ! अपनी ही औलाद से, अपनी जीवन भर की कमाई को, पढ़ाई लिखाई और बच्चों की परिवरिश पर खर्च हो चुकी, बताने में कोई कसर नहीं छोड़ते ! उन्हें अक्सर यह लगता है कि बच्चों ने अगर बुढापे में मदद न की तो क्या होगा ? अतः अपनी शेष जमापूंजी आदि बच्चों की नज़र से दूर ही रखा जाए तभी अच्छा होगा ! उनकी यह समझ और झूठ , बच्चों को पता लगते अधिक देर नहीं लगती ! अपने ही बड़ों द्वारा, उन पर विश्वास न किये जाने पर, रिश्तों में ठहराव और एक बड़ी दरार आना स्वाभाविक हो जाता है !
अक्सर अपनी असुरक्षा की भावना लिए, बड़ों की यह बेईमानी, उस परिवार में अपनों के प्रति शक के माहौल को पैदा करने में, बड़ी भूमिका निभाती है एवं अनजाने में एक भयंकर विष बीज और रोप दिया जाता है ! जहाँ ममता, स्नेह और सुनहरे भविष्य का मज़बूत आधार, परस्पर मिलकर तैयार किया जाना चाहिए वहीँ शक और शिकायतों का एक मजबूत आधार बन जाता है !
मुझे याद आता है ,मेरे एक सीधे साधे साथी के रिटायरमेंट पार्टी पर, उनकी पत्नी तथा बच्चों ने मुझसे आखिरी चेक की रकम फुसफुसाते हुए जाननी चाही और साथ ही यह भी कि उनके पति, को इस बारे में न बताया जाए , तो मैं निशब्द रह गया !
पुत्री सबसे अधिक अपने परिवार से जुडी होती है ! कुछ समय बाद अपने घर से दूर हो जाने का भय उसे अपने परिवार के प्रति और भी भावुक बना देता है ! अनजाने में सबसे अधिक अन्याय इसी के साथ किया जाता है, अपने घर में भी और नए घर में भी ! अफ़सोस है कि उसकी माँ भी उसे यह अहसास दिलाने में आगे रहती है कि यह घर उसके भाई का है जबकि अधिकतर लड़कियां अपने भाई के लिए कुछ भी देने के लिए तैयार रहती हैं ! अगर भावनात्मक तौर पर ही भाई और माँ उसे स्नेह का विश्वास दिला दें तो शायद ही कोई लड़की अपने आपको अकेला महसूस करे !
हर भाई को अपनी बहिन से स्नेह चाहिए मगर हर बार हम भूल जाते हैं कि परिवार वृक्ष की यह सबसे सुन्दर टहनी ही सबसे कमजोर होती है और वह जीवन भर अपने पिता और भाई से प्यार की आशा लगाए रहती है ! और हम ...??
आइये, पूंछे अपने दिल से !
( यह लेख दैनिक जागरण में दैनिक जागरण में ७ जुलाई २०११ को छपा है )
सतीश भाई, गंभीर विषय पर आज कलम चलाई।
ReplyDeleteमेरे एक बुजुर्ग मित्र थे,रिटायरमेंट के बाद मिलने आए। उन्होने बताया कि रिटायरमेंट के बाद 18 लाख मिले। जिसमें से उन्होने 10 लाख रुपए एक धार्मिक संस्था को दे दिए और घर वालों को 8 लाख मिलने की बात बताई साथ ही मुझे ताकीद दी कि मैं यह बात किसी से न बताऊँ।
नहीं तो महाभारत मचने की आशंका थी।
आभार
अफ़सोस है कि तकनीकी भूल के कारण सुबह से कमेन्ट प्रकाशित नहीं हो पा रहे थे ! मेल से मिला डॉ अरविन्द मिश्र का कमेन्ट प्रकाशित कर रहा हूँ !
ReplyDeleteअहो भाग्य ,आज खिड़की खुली मिली है....अच्छे विचार हैं आपके ..मगर असहमतियों के स्वर भी उठें तो विमर्श हो सकेगा ...
फिर लौटूंगा ..खिड़की खुली रखियेगा और अन्दर का बल्ब भी ...ऐसे ही ...
उफ़ यह तो अभी भी बंद है ..मेरा समय जाया हुआ....
रिश्तों का गणित बहुत जटिल है। शुभकामनायें।
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित विवेचन है भाई साहेब,परिवार चलाना देश चलाने से भी कठिन होता जा रहा है.दरअसल हाल के दशक में आये सांस्कृतिक बदलाओं ने भी पारिवारिक रिश्तों को प्रभावित किया है.
ReplyDeleteTippani ke prati samvedansheel hona lekhan-dharm hai. Aapka aahvaahan swagat yogy hai.post bhi samvedansheel hai.aabhar
ReplyDeletejai baba banaras.....
ReplyDeleteपैसे की अंधी दौड़ ने रिश्तों की चटनी बना दी है.
ReplyDeleteअरे वाह ..आज आपने पाठकों को कुछ कहने का अवसर दिया ...
ReplyDeleteआपने सटीक नजरिया रखा है ..बहुत विचारणीय बिंदु दिए हैं ... सुन्दर लेख ..
zabardast post !
ReplyDeleteगुरुदेव! आपके वातायन खुले और मन्द बयार ने स्वागत किया.. लगा जैसे वृष्टि के आगमन पर हम झरोखे खोलकर बैठ जाते हैं आनन्द लेने, बस वैसे ही आपने आनन्द का अवसर प्रदान किया.. बिल्कुल घर घर की कहानी प्रस्तुत की है!!
ReplyDeleteसतीश भाई,
ReplyDeleteमेरी नींद, मेरा चैन (टिप्पणी करने का हक़) लौटाने के लिए शुक्रिया...
शायद मेरी वैष्णोदेवी यात्रा का असर है कि आपके दरबार में मेरी बात इतनी जल्दी सुन ली गई...
जय हिंद...
पारिवारिक रिश्तों का अच्छा विश्लेण किया है आपने... हार्दिक बधाई।
ReplyDeleteबहुत खूब सतीश जी ...आपकी बातो से मैं सहमत हूँ ..हम ही है इस विष के दाता..हम अनजाने ही यह सब करते है और देखते भी है फिर भी कुछ कर नही पाते ..यही विडम्बना है ..
ReplyDeleteस्वागत है !गुरुभाई ..
ReplyDeleteआते ही एक कढ़वी सच्चाई,खूबसूरती से बयाँ कर दी |
शुभकामनायें!
चलिये लोगो को राहत होगई कमेन्ट कर सकते हैं अब कुछ ही जगह होती हैं जहां लोग ये कह सकते हैं "वाह" उस जगह कमेन्ट बंद हो जाए तो "वाह" कहने वाले पाठक कहा जाये . इस मुद्दे पर दिनेश , वाणी , प्रवीण और सुमन ने बहुत कुछ लिखा पर मंथन करने वाले कमेन्ट थे नहीं क्युकी "वाह" कहकर वहाँ काम चलना नहीं था
ReplyDeleteख़ैर पोस्ट की बात कर लूँ तो चलूँ !!!
इन सब मुद्दों पर आप लिखेगे तो नारी ब्लॉग बंद करना होगा , मुझे मंजूर हैं अगर और लोग भी इन मुद्दों पर सही आकलन करे और वाह की जगह मंथन करे अपना मत भी दे
सतीश जी
ReplyDeleteये लेख लिखने के लिए धन्यवाद | समाज में जब पुरुष किसी बात को कहे तो उसे जरा ज्यादा ध्यान से सुना जाता है उम्मीद है बुजुर्ग और पुरुष इस पक्ष को भी समझेंगे जो वास्तव में परिवारों के टूटने की सबसे बड़ी वजहों में एक है | बड़े अक्सर बच्चो से और परिवार तथा समाज बहु और बहनों से ही हमेसा झुकने त्याग करने परिवार के हिसाब से चलने की उम्मीद करता है कोई भी एक कदम अपनी तरफ से नहीं बढाता है और उम्मीद करता है की नारी ही परिवार को बचाने के लिए सब करे | शायद अब समय आ गया है की पुरुषो ओ बुजुर्गो को भी अपनी तरफ से एक कदम बढ़ाना चाहिए परिवार को बचाने के लिए |
पुत्री सबसे अधिक अपने परिवार से जुडी होती है ! कुछ समय बाद अपने घर से दूर हो जाने का भय उसे अपने परिवार के प्रति और भी भावुक बना देता है ! अनजाने में सबसे अधिक अन्याय इसी के साथ किया जाता है, अपने घर में भी और नए घर में भी ! अफ़सोस है कि उसकी माँ भी उसे यह अहसास दिलाने में आगे रहती है कि यह घर उसके भाई का है जबकि अधिकतर लड़कियां अपने भाई के लिए कुछ भी देने के लिए तैयार रहती हैं ! ...per kahan samajhte hain log
ReplyDelete.......
ReplyDelete.......
PRANAM
पारिवारिक समीकरण की अच्छी विश्लेषणात्मक व्याख्या की हे आपने.
ReplyDeleteसंवेदनाओं के धरातल पर बहुत अच्छा और पठनीय लेख.
ReplyDeleteसतीश भाई परिवार में भी कम से कम वयस्क मताधिकार वाला लोकतंत्र होना चाहिए।
ReplyDeleteपारिवारिक रिश्तों का अच्छा विश्लेण किया है| आभार|
ReplyDeleteपारिवारिक रिश्तों का अच्छा विश्लेण किया है| आभार|
ReplyDeleteसच कहा गया है कि गृहस्थाश्रम में जीवन का सबसे कठिन समय बीतता है...हर दिन एक नए प्रयोग के साथ शुरु होता है...आज खिड़की खुली तो अच्छा लगा..
ReplyDeleteसारगर्भित विश्लेषण
ReplyDeleteअच्छी पोस्ट..
ReplyDeleteन्यूक्लियर फैमिली के प्रति बढ़ते रुझान को लेकर आप क्या कहेंगे ?
सतीश जी नमस्ते ! सर्वप्रथम धन्यवाद आपको की आपने कॉमेंट्स का दरवाजा तो खोला कृपया इसे आइन्दा बंद करने की कोशिश न करें तो अच्छा होगा !
ReplyDeleteआपने सटीक नजरिया रखा है ..बहुत विचारणीय बिंदु दिए हैं ..........आभार
sach kaha aapne satish sir...!!
ReplyDeletepata nahi kahan ham ja rahe hain, kaise soch hote ja rahe hain...sirf post ki hi nahi...khud kee family ke liye bhi sochta hoon, to aisa hi kuchh pata hoon..
ऐसा विषय है जिस पर समय समय पर चर्चा होती ही रहनी चाहिए।
ReplyDelete@ टिप्पणी बाक्स,
ReplyDeleteशुक्रिया :)
@ पोस्ट ,
कभी गौर किया हो तो जो युवा आज भुक्त भोगी है कल वही बन्दा अपने दिन भूल कर अपनी बुज़ुर्गियत/अपनी मनमर्जी नई पीढ़ी पर थोपता है ! ये प्रवृत्तिगत / व्यवहारगत द्वैध हमेशा दोहराया जाता है ! मसलन एक विवाह योग्य लड़की जो अपने पिता के दहेज ना दे पाने की विवशता पे कराह उठती है वही सास बनते ही किसी और लड़की से दहेज लेने का ज़बरदस्त जुगाड/आग्रह करती है ! बहु होते हुए जो पीड़ा खुद भोगती है वही सास बनते ही अपनी बहु को देती है ! मर्दों के साथ भी ऐसा ही होता है ! मेरे ख्याल से सामूहिकता / सांस्कृतिकता के विरुद्ध व्यक्तिवाद / निजस्वार्थवाद का डामिनेंस इसका मुख्य कारण है ! इसे आप अवसरवादिता भी कह सकते हैं !
यह कि अपने अपने समय की अपेक्षायें हमेशा अतृप्त बनी ही रहेंगी जबतक कि हर कोई अपने गिरेहबान में झांक कर देखना और दूसरों को स्पेस देने लायक दिल गुर्दे लेकर चलना ना सीख जाए :)
एक एक अक्षर सत्य कहा है सतीश जी ।
ReplyDeleteआजकल पैसा सबसे बड़ी पूँजी बन गया है ।
परिवार के ताने-बाने, कुछ सुलझे कुछ उलझे.
ReplyDeleteभाई तरक्की इतनी कीमत तो मांगती है...अमेरिका होने जा रहे हो...मनमोहना के राज में...और रिश्ते भी ढ़ोना चाहते हो...कमाल है...
ReplyDeleteसुबह की मेरी टिप्पणी जिसे मैंने दो बार रीपिट किया था अंततः वह नहीं आ पाई ।
ReplyDeleteएक कड़वी सच्चाई है ये, हम सब कुछ जानते हुए भी अपने आप ही अपने घर में दरार पैदा करते है
ReplyDeleteआभार
bahut hi sunderta se aapne ladki,bahu nari sabke pakh mein likha ...
ReplyDeletesunder lekh
प्रेम की नींव विश्वास पर टिकी है। विश्वास करो तो पूर्ण विश्वास करो। नहीं कर सकते तो पूर्णतया प्रैक्टिकल हो जाओ। ऐ पार रहो या ओ पार । जैसे रहो, जब तक जीयो, मस्त रहो।
ReplyDeleteकिसी भी नई नवेली बहू को परिवार से जुड़ने की पहली शर्त होती है कि वह इस परिवार को अपना समझे। अपनत्व हो गया तो सारे दीवार ढह जाते हैं।
ReplyDelete@ चला बिहारी ,
ReplyDeleteआपके आने का शीतल झोंका मैंने भी महसूस किया है सलिल सर !
शुभकामनायें स्वीकार करें !
@ खुशदीप सहगल,
आपका आदेश टाला नहीं जा सकता ....
आभार !
bhawbhinee bhasha men behad gambheer visay uthaya hai....achcha kiya.
ReplyDelete
ReplyDelete@ रचना ,
नारी ब्लॉग अपने आप में एक आन्दोलन का प्रतीक हैं जिसे आपने बरसों से अपनी द्रढ़ता और परिश्रम से ब्लोगर समाज को दिया है ! उसे बंद करने के बारे में सोंचा भी नहीं जा सकता ! जहाँ तक नारी मुद्दों की बातें हैं उस पर अधिकार पुरुषों का भी है ... :-)
अच्छा लगा कि आपको यह लेख पसंद आया !
आभार !
@ डॉ अमर कुमार ,
ReplyDelete@ न्यूक्लीयर फैमिली ,
शायद नारी के चारो और ही घूमती है इसकी धुरी ...
अगर आपही विवेचना करें तो शायद अधिक उपयुक्त होगा और उसे सही स्वरुप भी मिल पायेगा !
आभार !
@ अली सर,
ReplyDeleteआपकी टिपण्णी में कड़वा सच है ...अपनी बारी आते ही हम अपनी औकात बता देते हैं !
सादर !
@ सुशील बाकलीवाल
ReplyDeleteसुबह की पहली कुछ टिप्पणियां टेक्नीकल भूल की भेंट चली गयी भाई जी ! खेद है !
इन दिनों इतने विषणण क्यों हो भाई !
ReplyDeleteअभी तो बहार के दिन हैं कुछ यार वार मजेदार लिखो न:)
ई सब पचड़े की बातों को नारी ब्लॉग के लिए ही छोड़े रहो हजूर!
वाह!
ReplyDeleteजिंदगी के फ़लसफ़े को समझाती एक अच्छी पोस्ट । बहुत ही बढिया विश्लेषण किया सतीश भाई
ReplyDeleteकई बार कुछ अनुभव सुनकर ये बात झूठी लगने लगती है कि परिवार दुनियादारी से हमें बचाता है...यदि परिवार वाले आपस में स्वार्थ सिद्धि के लिए ही रह जाएँगे तो व्यक्ति कहाँ जाएगा....फिर उसे परिवार की आवश्यकता ही क्यों होगी, स्वार्थ के ही दर्शन करने होंगे तो उसके लिए तो ये दुनिया ही काफी है....
ReplyDeleteThanks God.
ReplyDeleteमेरा विश्वास कायम रहा !
बहुत बढ़िया लेख के लिए बहुत बहुत बधाई !
जहाँ तक नारी मुद्दों की बातें हैं उस पर अधिकार पुरुषों का भी है ... :-)
ReplyDeleteहम दूर क्यूँ जाते हैं इस ब्लॉग जगत में जितनी बेहूदा बेशर्मी से भरी पोस्ट मेरे ऊपर आयी हैं शायद ही किसी के ऊपर आयी हो . और महज इस लिये क्युकी मैने नारी ब्लॉग बना कर मोरल पोलिसिंग की ब्लॉग जगत के उन पुरुषो की जो नितान्त बेहुदे हैं और महिला को दोयम का दर्जा देते हैं . मोरल पोलिसिंग के पुरुष के अधिकार को मैने अपने हाथ में ले लिया तो तिलमिला गया वो पुरुष समाज जो हमेशा महिला के ऊपर मोरल पोलिसिंग करता रहा हैं और फिर मेरे ऊपर व्यक्तिगत आक्षेप लगते रहे और लोग दांत निपोरते रहे . नीरज रोहिला , निशांत मिश्र , अमित , हिमांशु , दीप पाण्डेय , कुछ गिने चुने नाम हैं जिन्होने हर समय आपत्ति दर्ज की ऐसी पोस्ट पर . बाकी वो जो अपने को बड़ा भाई , दादा { पिता के पिता } , चाचा इत्यादि कहते हैं हमेशा चुप रहे और तमाशा देखते रहे क्युकी उनको ब्लॉग पर टीप चाहिये अपने अपने .
थूकने का मन करता हैं मेरा जब जो मेरे ऊपर बेशर्मी की हद को पार करती हुई पोस्ट अपने ब्लॉग पर लगाते हैं , कमेन्ट मोद्रशन के बाद भी अप्रोव करते हैं वही दूसरे ब्लॉग पर जा कर जहां किसी पुरुष ने नारी विषय पर पोस्ट दी हो तुरंत अपनी सहमति दर्ज कराते हैं
रिश्तो को मान मर्यादा में जीने ...और मन की घुटन हो बहुत अच्छे से समझाने में आप सफल रहे है .....रिश्ता कोई भी हो ...वो सांसे चाहता है ...जीना चाहता है खुल कर ....पर ऐसा हो नहीं पाता....मन की घुटन मन में ही दबती चली जाती है ....और वो कब विस्फोटक रूप धरान करती जली जाती है ...कोई समझ नहीं पाता ......और फिर रिश्ते दरकने शुरू हो जाते है
ReplyDeleteआभार आपके इस लेख के लिए और हम यहाँ टिपण्णी कर पा रहे है ...उसके लिए
टिप्पणी तो सूझ नहीं रही थी पर अरविन्द मिश्रा जी ने विवश किया - वे इतने अहम विषय को नारी ब्लॉग के लिये छोड़ने को कह रहे हैं।
ReplyDeleteहकीकत यही है कि हम बहुत सारी अहम चीजों को बहुत ही सतही स्तर पर छोड़ देते हैं और ये ताजिन्दगी हमारे सर पर बला सी सवार रहती हैं चेतन में और अचेतन में .... और हम यार, वार, मजेदार जैसी बेहोशी में खोये रहने में ही जीवन की सार्थकता मानते हैं। या टेम्पररी अस्थायी, तत्कालिक उपाय ढूंढते हैं, जिसमें दबाव बढ़ते बढ़ते ...प्रेशरकुकर बम की तरह कभी भी फट पड़ता है, तब हमें होश आता है कि अरे...ये क्या हो गया। ये तो नारी ब्लॉग वाली छोटी सी बात थी।
रिश्तों को सामान धूप पानी और खाद मिलनी चाहिए तभी वो सहज पनप सकते अहिं और लंबे समय तक मीठे रह सकते हैं ... अच्छा लिखा है आज ... बहुत उपयोगी सतीश जी ...
ReplyDeleteपाठकों से एक अनुरोध अवश्य करना चाहूँगा ! कृपया इस ब्लॉग पर किसी भी व्यक्ति, धर्म के बारे में अपमानजनक शब्द न कहें किसी भी हालत में प्रकाशित नहीं किया जाएगा !
ReplyDelete:-)
आभार आप सबका !
एक नए परिवेश में आई हुई लड़की के मनोभावों का अच्छा वर्णन . आभार .
ReplyDeletesarthak charchaa. rishte bache rahe. yah zarooree hai.
ReplyDeleteसराहनीय पोस्ट....
ReplyDeleteपरिवार सामाजिक जीवन की सबसे महत्वपूर्ण इकाई है। यह भारतीय जीवन-पद्धति में पारिवारिक-आधार की सुदृढ़ता है जिसके कारण हमारे सांस्कृतिक मूल्यों में अभी तक स्पंदन विद्यमान है। आपने इस पोस्ट में जिन बातों का उल्लेख किया है वे एक अर्थ में पारिवारिक जीवन में लोकतंत्र की स्थापना कहा जा सकता है। मर्यादा के अंदर परिवार के सुख-दुख में भावनात्मक साझेदारी में सभी को अवसर मिलना चाहिए। लोकतंत्र का विकास परिवार के योगदान से संभव है।
rishton mein Beti, Bahu kee bhumika ka paksh mukhar karne ke liye aabhar...
ReplyDeletegaon se lautne par blog par ruteen banana ab thoda-thoda sambhav ho paa raha hai...
सयुंक्त परिवारों का टूटना, एक दूसरे के प्रति अविश्वास, ही इस सब की जड़ है
ReplyDeleteसर्वप्रथम तो आपको हम जैसे पाठकों के लिए 'खिड़की' खोलने का शुक्रिया !आज ज़रूरी है कि रचनाकार अपने पाठक के संपर्क में रहे !
ReplyDeleteआपने इक बेहद महत्वपूर्ण सामाजिक मुद्दे को छुआ है.हम बड़े पहले बातें तो बड़ी-बड़ी करते हैं,जिस लड़के के लिए बहू लाने में जी-जान लगा देते हैं,उसके घर पर आते ही उसे अपने प्यार को बाँट लेनेवाली मान लेते हैं !कई परिवार इस तरह के असुरक्षा बोध के चलते छिन्न-भिन्न हो जाते हैं !ज़रुरत है की हम समय के साथ साम्य स्थापित कर सकें !
.
ReplyDelete.
.
" हर भाई को अपनी बहिन से स्नेह चाहिए मगर हर बार हम भूल जाते हैं कि परिवार वृक्ष की यह सबसे सुन्दर टहनी ही सबसे कमजोर होती है और वह जीवन भर अपने पिता और भाई से प्यार की आशा लगाए रहती है ! और हम ...??
आइये, पूंछे अपने दिल से !"
दिल को छू गई आपकी यह बात सतीश जी , कम से कम अपने परिवार वृक्ष की इस सुन्दर टहनी का पूरा ख्याल रखा जायेगा, धन्यवाद इस आँखें खोलने वाले आलेख के लिये!
...
pranam !
ReplyDeletebehad samvedan sheel hai rishto ko samjhna aur nibhana . achcha vishay .badhai
saadar
सुन्दर विचारणीय लेख....
ReplyDeleteबहुत अच्छा किया सतीश जी .........टिप्पणी बॉक्स खोल दिया ......शत-शत आभार
सतीश जी ये केवल परिवार की ही बात नहीं हम पूरे सामाजिक ढांचे को खोखला कर रहे हैं
ReplyDeleteछोटी छोटी बातों पर मन मुटाव हो जाना कुछ भी ऐसा कह देना जो दूसरे व्यक्ति के मन को आघात पहुंचाए ,,,बड़ी सामान्य सी बातें हैं
जहां तक बात बेटी की है ,,वो तो हमें बचपन से संस्कार ही यही दिये जाते हैं कि हालात जो भी हों संतुलन और सामंजस्य उसी की ज़िम्मेदारी है
आगे उस की क़िस्मत
अच्छे टॉपिक पर चर्चा के लिये बधाई
मेरा-तेरा के भेद से बाहर निकले बिना ऐसी समस्याओं का हल कैसे होगा। जहाँ बहू और बेटी को एक इज़्ज़त दी जाये वहाँ ऐसी समस्यायें होने की सम्भावना कम है। पर साथ ही बहू को भी परिपक्वता की ज़रूरत है। एक बसे-बसाये घर में पहुँचे नये व्यक्ति के लिये यह सब आसान नहीं है। कुल मिलाकर एक अच्छा आलेख!
ReplyDeletebhawpoorn prastuti..sir ji.
ReplyDeleteap bhi aaeye.... hamara bhi hausla badhaiye
aadarniy sateesh bhai ji
ReplyDeletemain kuchh dino pahle aapke blog par aai thi par us par no comment k ashabd padh kar ek man medhakka sa laga.dukh bhi hua .ki akhir aisa kun hai.-fil hal aapki nai post padhne ko mili to man prasannta se khil utha.pata nahi ye bhai shabd se akanjane sneh se jud sa gaya hai .main aap me apne bhai ki hi kjhalak paati hun.
aapke lekh ka ek ek shabd man me utarta chala gaya. bahut hi yatharth v bilkul sateek vivaran prastut kiya hai .aage kya likhun samjh nahi pa rahi hun .
mera bhi swasthy idhar gadbad hi rahta hai .atah ab type nahi kar pa rahi hun .
aapki sneh ki aakanxhi bahan
poonam
सतीश जी आज अभी देखा तो आप कि टिप्पणी खुली मिली. चलिए कुछ कहने का मौक़ा मिलता रहेगा. यह लेख पसंद आया और कल बगीची मैं चर्चा मैं इसे लगाया जा रहा है.
ReplyDeleteसतीश जी आपकी पोस्ट एकदम सटीक मर्म को छूती हुयी है , नयी बहू जब तक सम्हले वो अनगिनित जालों में गिर जाती है और यही से जन्म होता है आक्रोश का. ज्यादातर घरों में देखा जाता है ससुर के प्रति आक्रोश कम होता है सीधी सी बात है बहू से उसे कोई असुरक्छा का भय नहीं होता, सासे कालांतर में अशुरक्छा से घिर जाती है और इसका कारण भी वही है सकारात्मक संवाद की कमी . घर टूटने का मुख्य कारण भी यही छोटा सा है शायद.
ReplyDeleteपारिवारिक रिश्तों और उनकी समस्याओं का अच्छा विश्लेषण किया है. लेकिन मैं निर्मला कपिला जी की बात से सहमत हूँ कि रिश्तों का गणित बहुत जटिल है. लेकिन एक अच्छे रिश्ते बनाने का प्रयास तो ज़रूर किया जा सकता है. शुभकामनायें !
ReplyDeleteसतीश भाई साहब कबसे आपको ढूंढ रहे थे .आपने टिपियाने के तमाम रास्ते ही बंद कर दिए .टिप्पणियों का निषेध कर दिया था .हम बेहद निराश थे .लदे के एक भाई मिला .रूस गया .दूर जा बैठा .आपने सही मुद्दों पर हाथ रख दिया है .इतना अपना पन सबमे हो तो परिवार चन्दन से सुवासित हो जाएँ .विष दंत गिर जाएँ तमाम .
ReplyDeleteरिश्तों के बंधन इतने शिथिल पहले कभी नहीं थे जितने आज हैं।
ReplyDeleteयह देख संतोष हुआ कि टिप्पणी चालू हुई...
ReplyDeleteबाकी रिश्तों और उनके समीकरण...कुछ न कहना ही बेहतर है...जो भोगे वो अहसासे वाली बात है वरना कब कभी सोचा भी था...
इसमें कोई शक नहीं कि रिश्ते निभाने में स्त्रियाँ हम पुरुषों से कहीं आगे हैं।
ReplyDeleteबदलते वक्त के साथ रिश्तों का मतलब भी बदल रहा है, और प्राय: हम समझते तभी हैं जब पानी सर से ऊपर निकल जाता है। अच्छी नीयत से किये गये कामों का नतीजा अच्छा आ सकता है लेकिन विषब्ले बोई जायेगी तो गंभीर परिणाम आना तय ही है।
bahut sahi aur gahri baat kahi hai aapne shayad ye chhupi samsya hai janta har koi hai pr shayad soch kisi ne na hoga aapke siva
ReplyDeleteabhar
rachana
बहुत बढिया. क्या विवेचना किया है आपने, लेकिन ये रिश्तों की डोर बहुत ही नाजुक होती है।
ReplyDeleteThe Flip Side :On your retirement and post retirement children want you to spend in the real state to boost their economy .They are going for big flats in and around the Metropolis like Gurgaon ,or Navi Mumbai.They target whatever little money you got on yr retirement .You have got to be a selfsustaining system all yr life and not a praracite,shuld be able to meet all contingencies,diseases and surgeries .I have undergone two major surgeries at Escorts Delhi,CABG(coronary artery By pass grafting )and prolapse disc incision and have paid for it .I wish to know life in all its ramifications and go around the globe .I thank the moral family support I got from all quarters but I have to be sustainable all by myself .Rest I agree with you Bhai sahab .
ReplyDeletebahut vichaarneey post......kash sab samajh sake.
ReplyDeleteकाफी गंभीर विषय पर चर्चा की है आपने
ReplyDeleteबहुत खूब
नाज़ुक रिश्तों की मज़बूत डोर का पूरा पता है आपके लेख में !
ReplyDeleteसूक्ष्मता से लिखे गए इस गंभीर लेख की बातें जीवन में उतारने लायक है !
आभार !
परिवार में एक सामान्य सा छोटा ईगो कब सिर उठा लेता है और एक द्वेष परम्परा को जन्म दे जाता है। जिसे कोई भी पक्ष वास्तव में तो पसंद नहीं कर रहा होता, पर ईगो इस परम्परा को रूकने नहीं देता।
ReplyDeleteगहन चिंतन - आभार
ReplyDeleteGambheer wishay chintan par iska doosara pahaloo bhee hai. Rishte shak aur sandeh se ghir gaye hain ye bat aapki sachchi hai.
ReplyDeletebahut hi bhavapoorn abhivyakti ...abhaar
ReplyDeleteआदरणीय सतीश सक्सेना जी
ReplyDeleteनमस्कार !
पारिवारिक रिश्तों का अच्छा विश्लेण किया है|
अस्वस्थता के कारण करीब 20 दिनों से ब्लॉगजगत से दूर था
ReplyDeleteआप तक बहुत दिनों के बाद आ सका हूँ,
शुक्रिया भाई साहब .अगला लेख इसी की अगली कड़ी के रूप में जड़ी पढियेगा .
ReplyDeletevery very nice post.
ReplyDeleteपारिवारिक रिश्तों और कर्तव्यों को बड़ी सहजता से समझाता आपका उपयोगी लेख ............अति हितकर,अति सुन्दर
ReplyDeleteवाकई हमारी छोटी छोटी दुर्बलताएं परिवार जैसी इकाई को कमजोर कर रही हैं.
ReplyDeleteप्रकृति से छेड़छाड़ की तो पर्यावरण बदल गया.
ReplyDeleteसंस्कारों से छेड़छाड़ की -वातावरण बदल गया.
सोच ऐसे ही नहीं बदल गई.बहुत से कारक हैं इस बदलाव के लिये.तकलीफ होने लगी तो पर्यावरण-संतुलन के प्रति चेतना जागी.अभियान चले,वृक्षारोपण होने लगे,हानिकारक कारकों पर प्रतिबंध लगाया गया.रिश्तों का संतुलन बिगड़ा-पीड़ा होने लगी.कब अभियान चलेगा ? संतुलन बिगाड़नेवाले कारकों पर कब प्रतिबंध लगेगा ? क्या प्रकृति संतुलन की तरह रिश्तों के संतुलन के लिये गम्भीरता से विचार करना जरूरी नहीं है,अभियान चलाना जरूरी नहीं है ? सोचें-मनन करें..
ई सब पचड़े की बातों को नारी ब्लॉग के लिए ही छोड़े रहो...
ReplyDelete:)
रश्मि रविजा को ये पचड़ा हाजिर किया जाये ......
प्रतिक्षा है एक धाँसू नई पोस्ट की!!
ReplyDeleteKitna kux sikha diya is post ne..
ReplyDeleteBadhai...bhaiya.
आपकी नै रचना का इंतज़ार कब तक करें .
ReplyDeleteरिश्ते दुतरफ़ा मारक और प्रेरक होते हैं, जिसके भाग्य में जो हो, शायद उसी अनूरूप कार्यकलाप हो जाते हैं. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
जब संवेदनशीलता अपने-पराये के निकष पर प्रकट की जाती है तो विषबेल ही उगता है. अच्छी लगी पोस्ट.
ReplyDeleteआपकी ये पोस्ट बहुत कुछ सोचने को विवस करती है ।
ReplyDeleteबहुत सारगर्भित विवेचन है.आभार.
ReplyDeleteसुन्दर विचारणीय लेख....सक्सेना जी
ReplyDelete