आज रहा मन उखड़ा उखड़ा,महलों के गलियारों में !
जी करता है यहाँ से निकलें,रहें कहीं अंधियारों में !
कभी कभी अपने भी जाने क्यों, बेगाने लगते हैं ?
वे भी दिन थे जब चलने पर,धरती कांपा करती थी,
मगर आज वो जान न दिखती,बस्ती के सरदारों में !
भ्रष्टाचार मिटाने आये, आग सभी ने उगली थी !
हमने हाथ लगा के देखा , ठंडक थी अंगारों में !
दबी दबी सी वे चीखें, अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !
लोकतंत्र से आशा कम,पर ताकत है चीत्कारों में !
जी करता है यहाँ से निकलें,रहें कहीं अंधियारों में !
कभी कभी अपने भी जाने क्यों, बेगाने लगते हैं ?
जाने क्यों आनंद न आये,शीतल सुखद बहारों में !
वे भी दिन थे जब चलने पर,धरती कांपा करती थी,
मगर आज वो जान न दिखती,बस्ती के सरदारों में !
भ्रष्टाचार मिटाने आये, आग सभी ने उगली थी !
हमने हाथ लगा के देखा , ठंडक थी अंगारों में !
दबी दबी सी वे चीखें, अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !
लोकतंत्र से आशा कम,पर ताकत है चीत्कारों में !
कभी कभी, अपने भी, जाने क्यों, बेगाने लगते हैं !
ReplyDeleteआज हमें ,आनंद न आये ,शीतल सुखद हवाओं में !
यह सच है जब अपने बेगानों जैसा व्यवहार करते है तो कुछ भी अच्छा नहीं लगता लेकिन कई बार दोष परस्थितियों का होता है न की अपनों का, वे अपने भी क्या जो बेगाने से लगते है ...सुन्दर रचना मन को छू गई है !
बहुत सुन्दर प्रस्तुति.. आपको सूचित करते हुए हर्ष हो रहा है कि आपकी पोस्ट हिंदी ब्लॉग समूह में सामिल की गयी और आप की इस प्रविष्टि की चर्चा कल - शुक्रवार 30/08/2013 को
ReplyDeleteहिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः9 पर लिंक की गयी है , ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया आप भी पधारें, सादर .... Darshan jangra
आज रहा मन उखड़ा उखड़ा,महलों के,गलियारों में !
ReplyDeleteजी कहता है,यहाँ से निकलें, जाकर रहें गुफाओं में !
चीजों को बदलने से बेहतर है मन को समझा जाय :)
बेहतरीन ..
ReplyDeleteहल्की सरसरहट के बाद धीरे-धीरे तीक्ष्णता अब किसी तुफान की ओर बढती सी लग रही है। सादर!
ReplyDeleteखूबसूरत गीत। हमेशा की तरह प्रभावशाली।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना है।
ReplyDeleteवर्तमान हालातों के दर्द को बयाँ करती हुई बहुत ही प्रभावी रचना है.
ReplyDeleteदिल का दर्द शब्दों में उतर आया है तभी तो हाथ कहते हैं
ReplyDeleteहमने हाथ लगाकर देखा,ठंडक है
****निःशब्द करती अनुभूति लिए *** मेरे गीत ***
कभी कभी, अपने भी, जाने क्यों, बेगाने लगते हैं !
आज हमें ,आनंद न आये ,शीतल सुखद हवाओं में !
वाह...
ReplyDeleteकभी कभी, अपने भी, जाने क्यों, बेगाने लगते हैं !
आज हमें ,आनंद न आये ,शीतल सुखद हवाओं में !
बेहद प्रभावशाली....
सादर
अनु
very beautifully written : www.freepaperbook.com
ReplyDeleteबार बार, जंतर मंतर पर, हमने जाकर,देख लिया !
ReplyDeleteअभी न कोई गांधी निकला,अभिमानी हरकारों में !
bahut sunder......sahi bhi.....
दद्दा...
ReplyDeleteआज का गीत तो दिल से और दिल के लिए है.
शुभकामनाएं
भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
ReplyDeleteहमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !
किसी में भी ईमानदारी की आग नहीं है -बहुत सुन्दर प्रस्तुति
latest postएक बार फिर आ जाओ कृष्ण।
बार बार, जंतर मंतर पर, हमने जाकर,देख लिया !
ReplyDeleteअभी न कोई गांधी निकला,अभिमानी हरकारों में !
गांधी तो नहीं उनके नाम पे ठगने वाले हजार निकल आएंगे आज ... दिल का आक्रोश, दर्द, क्षोभ ... सभी कुछ उकेर दिया इस रचना में ...
भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
ReplyDeleteहमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !.....बेहद सुंदर सार्थक रचना....बधाई...
बहुत उम्दा :)
ReplyDeleteभ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
ReplyDeleteहमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !
दबी दबी सी ,कुछ चीखें,अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !
प्रजातंत्र से भी, आशा है, दम भी है, आवाजों में !
सार्थक अभिव्यक्ति
सारे लोग इस आवाज में शामिल हो जाएँ
हालातों की टीस
ReplyDeleteवाह जी सतीश
बेहतरीन ग़ज़ल है। खासकर चौथी, पांचवीं और छठीं शेर का तो कोई ज़वाब ही नहीं। लाज़वाब है। अंतिम शेर ने थोड़ा निराश किया। और दमदार होना चाहिए था। क्षमा सहित मैने इसे कुछ ऐसे पढ़ने का प्रयास किया-
ReplyDeleteदबी दबी सी ,कुछ चीखें,अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !
प्रजातंत्र अब भी जिंदा है, 'तूती' के आवाजों में।
(नक्कारखाने में तूती का आवाज एक मुहावरा है। इसी से 'तूती' का प्रयोग किया है।)
पं.संतोष त्रिवेदी का सुझाव निम्न है ...और गौर करें !!
Deleteप्रजातंत्र से भी, आशा है, दम भी है चीत्कारों में !
मगर पांडे दादा हमसे बहुत आगे हैं !.....
Deleteगज़ल के व्याकरण के अनुसार चीत्कारों या उद्गारों जैसा ही कुछ जमता है.
आशा धरें, लोकतन्त्र का शुभपहलू धीरे धीरे निकलेगा।
ReplyDeleteभ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
ReplyDeleteहमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !
...वाह...एक एक शब्द आज के यथार्थ को दिग्दर्शित करता...बहुत प्रभावी अभिव्यक्ति...
दबी दबी सी ,कुछ चीखें,अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !
ReplyDeleteप्रजातंत्र से भी, आशा है, दम भी है, आवाजों में !
.............खूबसूरत और प्रभावशाली गीत
सही लिखा है लोकतंत्र और आज की राजनीति के बारे में ...हालात सही में अब काबू से बाहर हो चुके हैं
ReplyDelete
ReplyDeleteबार बार, जंतर मंतर पर, हमने जाकर,देख लिया !
अभी न कोई गांधी निकला,अभिमानी हरकारों में !
आम, ख़ास और राम पार्टी, देश बचाने आयीं हैं !
एक बार, दिल्ली पंहुचा दो,हम भी खड़े कतारों में !
सार्थक अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबार बार, जंतर मंतर पर, हमने जाकर,देख लिया !
अभी न कोई गांधी निकला,अभिमानी हरकारों में !
आम, ख़ास और राम पार्टी, देश बचाने आयीं हैं !
एक बार, दिल्ली पंहुचा दो,हम भी खड़े कतारों में !
सुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteशुभकामनायें-
भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
ReplyDeleteहमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !
अंगारों पर राख जमी है ..
प्राञ्जल प्रस्तुति । सम्यक एवम् सटीक शब्द-चयन ।
ReplyDeleteवर्तमान परिवेश पर सटीक और गहरा कटाक्ष करती रचना।
ReplyDeleteलेकिन भाई जी यदि यह ग़ज़ल है तो मतला , मक्ता , काफिया , रदीफ़ आपसे रूठ जायेंगे ! :)
अब अंगारे ही अंगारे नही रहे, सिर्फ़ अंगारे होने का भ्रम भर रह गया है, बहुत ही सटीक चिंतन.
ReplyDeleteरामराम.
बहुत दमदार गीत ...वाह |
ReplyDeleteबेहतरीन और सार्थक रचना...
ReplyDelete:-)
बहुत सुंदर गीत ..
ReplyDeleteसुन्दर प्रस्तुति !
ReplyDelete☆★☆★☆
वे भी दिन थे,जब चलने पर,धरती कांपा करती थी,
मगर आज,वो जान न दिखती,बस्ती के सरदारों में !
कठपुतली जान के भरोसे नहीं चला करती , इशारे ही पर्याप्त हैं ...
:) यह तो विनोदवश कहा है...
ग़ज़ल कमाल की लिखी भ्राताश्री सतीश जी !
पहले कैसी थी , मैंने नहीं देखी
डॉ. दराल साहब को भी बधाई आपके साथ साथ !
मंगलकामनाओं सहित...
-राजेन्द्र स्वर्णकार
waah prasangik geet ...
ReplyDeleteबहुत शानदार प्रस्तुति, अपने समय का सच्चा हाल, आज का दिन एक थ्री स्टार होटल में गुजरा, वहाँ बड़े ब्यूरोक्रेट्स और राजनेताओं के बीच थोड़ा समय गुजरा, जो मन में सोचा, देखा कि सारे भाव आपकी कविता में उतर गये हैं।
ReplyDeleteभ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
ReplyDeleteहमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !
इसीलिए अब किसी की भी सरकार हो कोई उम्मीद लगानी बेकार है ।
भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
ReplyDeleteहमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !
सुन्दर प्रस्तुति !
दबी दबी सी ,कुछ चीखें,अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !
ReplyDeleteप्रजातंत्र से भी, आशा है, दम भी है, चीत्कारों में !
- दबी चीत्कारें ही सिंहनाद बन जाती हैं - अब इसी की प्रतीक्षा है!
बहुत बढिया।
ReplyDeleteयह पारिवारिक छंद में लिखे गये इस गीत को बांचकर स्व.कन्हैया लाल नंदन की यह कविता याद आ गई:
ReplyDeleteअंगारे को तुमने छुआ
और हाथ में फफोला नहीं हुआ
इतनी-सी बात पर
अंगारे पर तोहमत मत लगाओ
ज़रा तह तक जाओ
आग भी कभी-कभी
आपद्धर्म निभाती है
और जलने वाले की क्षमता देखकर जलाती है
--- रचनाकार: कन्हैयालाल नंदन
पारिवारिक छंद में लिखे इस गीत को बांचकर स्व.कन्हैयालाल नंदन की यह कविता याद आ गयी:
ReplyDeleteअंगारे को तुमने छुआ
और हाथ में फफोला नहीं हुआ
इतनी-सी बात पर
अंगारे पर तोहमत मत लगाओ
ज़रा तह तक जाओ
आग भी कभी-कभी
आपद्धर्म निभाती है
और जलने वाले की क्षमता देखकर जलाती है
--- रचनाकार: कन्हैयालाल नंदन
बहुत सुंदर कविता है ये नन्दन जी की
Deleteभ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
ReplyDeleteहमने हाथ , लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !
बार बार, जंतर मंतर पर, हमने जाकर,देख लिया !
अभी न कोई गांधी निकला,अभिमानी हरकारों में !
बहुत ख़ूबसूरत और सार्थक ग़ज़ल है
चीत्कारों में कब से दम होने लगा साहब, अगर जिसको वोट देना है उनमे से ही किसी से उम्मीद नहीं है तो फिर वोट देकर भी क्या हासिल हो जाएगा :)
ReplyDeleteभ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
हमने हाथ (,) लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !
दबी दबी सी ,कुछ चीखें,अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !
प्रजातंत्र से भी( ,) आशा है, दम भी है, चीत्कारों में !
(,) यहाँ अल्पविराम नहीं लगाना चाहिए शायद .
लिखते रहिये !
सही कर दिया है , बेख्याली पर आपने ध्यान तो दिया साहब , आभार :)
Delete
ReplyDeleteधन्यवाद भाई जी . दो तीन शब्द बदलने से निखार आ गया है.
बधाई सुन्दर रचना के लिए .
बहुत खूब..लेकिन उम्मीद पर दुनिया कायम है..
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteबहुत ही सुन्दर रचना ।
ReplyDeleteभ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
ReplyDeleteहमने हाथ लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !
क्या बात...सुन्दर रचना
क्या बात है सर , बहुत अच्छे ।
ReplyDeleteसभी पंक्तियां बहुत ही कमाल बेमिसाल ।
बेहद प्रभावशाली...बहुत ही खूबसूरत गीत !
ReplyDeleteबार बार, जंतर मंतर पर, हमने जाकर,देख लिया !
ReplyDeleteअभी न कोई गांधी निकला,अभिमानी हरकारों में !
यह गज़ल हमें दुष्यंत कुमार की याद दिलाती है।
हिम्मत अफजाई के लिए आभार मनोज भाई :)
Deleteबार बार, जंतर मंतर पर, हमने जाकर,देख लिया !
ReplyDeleteअभी न कोई गांधी निकला,अभिमानी हरकारों में !
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ .
ReplyDeleteबहुत खूब बहुत खूब बहुत खूब और बहुत खूब।
भ्रष्टाचार मिटाने आये , आग सभी ने, उगली है !
ReplyDeleteहमने हाथ लगाकर देखा , ठंडक है , अंगारों में !
दबी दबी सी ,कुछ चीखें,अब साफ़ सुनाई देतीं हैं !
प्रजातंत्र से भी आशा है, दम भी है, चीत्कारों में !
ये चीखें एक तुमुलनाद में बदलें ।
बढिया गज़ल ।
इन हालात में मन को तो उखड़ना ही है ....
ReplyDelete