सच कहूँ तो देश मेरा ,जाहिलों का देश है !
मूढ़,मूरख औ निरक्षर,काहिलों का देश है !
ढोर झुंडों की तरह आपस में लड़ते ही रहे
जाति धर्मों में बंटे, लड़ते जिलों का देश है !
सुना करते थे बड़ों से कभी हम भी,मगर अब
रक्षकों से ही लुटे , जर्जर किलों का देश है !
लड़कियां बाज़ार में चलतीं सहमती सी हुईं
मूढ़,मूरख औ निरक्षर,काहिलों का देश है !
ढोर झुंडों की तरह आपस में लड़ते ही रहे
जाति धर्मों में बंटे, लड़ते जिलों का देश है !
सुना करते थे बड़ों से कभी हम भी,मगर अब
रक्षकों से ही लुटे , जर्जर किलों का देश है !
लड़कियां बाज़ार में चलतीं सहमती सी हुईं
डूबतों को ताकते, जड़ साहिलों का देश है !
ढोंगियों के सामने, घुटनों पर बैठे हैं सभी !
संत बनकर ठग रहे, व्यापारियों का देश है !
देश मेरा भी जगेगा जल्द लेकिन इन दिनों,
स्वर्ण सपने बेंचते , कुछ धूर्तों का देश है !
बहुत सुंदर सटीक रचना
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteक्या खींचते हैं आप चित्र मजा आ जाता है पर इन मिर्चियों के जलने का धुआँ अपनी ही आँखों में चिलचिली मचाता है ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर
ReplyDeleteबहुत गहरा और सटीक तमाचा है समाज पर ... लाजवाब गीत ...
ReplyDeleteसार्थक प्रस्तुती
ReplyDeleteदेश के जागने की ही उम्मीद है।
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