खस्ता शेरों को देख उठे, कुछ सोते शेर हमारे भी !
सुनने वालों तक पंहुचेंगे, कुछ देसी बेर हमारे भी !
पढ़ने लिखने का काम नहीं बेईमानों की बस्ती में !
बाबा-गुंडों में स्पर्धा , घर में हों , कुबेर हमारे भी !
चोट्टे बेईमान यहाँ आकर बाबा बन घर को लूट रहे
जनता को समझाते हांफे, पुख्ता शमशेर हमारे भी !
जाने क्यों वेद लिखे हमने, हँसते हैं हम अपने ऊपर
भैंसे भी, कहाँ से समझेंगे, यह गोबर ढेर, हमारे भी !
फिर भी कुछ ढेले फेंक रहे ,शायद ये नींदें खुल जाएँ !
सुनने वालों तक पंहुचेंगे, कुछ देसी बेर हमारे भी !
पढ़ने लिखने का काम नहीं बेईमानों की बस्ती में !
बाबा-गुंडों में स्पर्धा , घर में हों , कुबेर हमारे भी !
चोट्टे बेईमान यहाँ आकर बाबा बन घर को लूट रहे
जनता को समझाते हांफे, पुख्ता शमशेर हमारे भी !
जाने क्यों वेद लिखे हमने, हँसते हैं हम अपने ऊपर
भैंसे भी, कहाँ से समझेंगे, यह गोबर ढेर, हमारे भी !
फिर भी कुछ ढेले फेंक रहे ,शायद ये नींदें खुल जाएँ !
पंहुचेंगे कहीं तक तो प्यारे,ये कपोत दिलेर,हमारे भी !
फेंके ढेले सब लपक रहे चिकने घड़े बाज ना आयें
ReplyDeleteवापस उल्टा खींच कर मारेंं फर्जी शेर हुँकारें भी।
वाह लाजवाब।
चोट्टे बेईमान यहाँ आकर बाबा बन घर को लूट रहे
ReplyDeleteजनता को समझाते हांफे, पुख्ता शमशेर हमारे भी !
वाह!!! बहुत ख़ूब!!!
बड़ी विनम्रता से कह रहा हूँ कि 'विज़िबल आफ़्टर अप्रूवल' हटा दीजिए। यह निरुत्साहित करता है, कॉमेंट करने के लिए और रचना धर्मिता के संस्कारों के भी विरुद्ध है। आलोचकों से रचनाकार डरता नहीं। साभार और सादर!!
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