आस्था का सहारा लेकर धन कमाने में व्यस्त ये जालसाज :
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आस्था बेच के देखें, कि छप्पर फाड़ आता क्या !
बड़ा रूतबा है दाढ़ी में,मनीषी क्या विधाता क्या !
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आस्था बेच के देखें, कि छप्पर फाड़ आता क्या !
बड़ा रूतबा है दाढ़ी में,मनीषी क्या विधाता क्या !
यहाँ इक झोपडी में छिपके रहता इक भगोड़ा था
निरक्षर सोंचता था मैं , वीरानों में ये करता क्या !
तिराहे पर पुलिस के हाथ जोड़ा करता बरसों से,
मैं मूरख सोंचता था, इन मज़ारों से ये खाता क्या !
कमाई आधी रिश्वत में निछावर कर, बना मंदिर !
शहर अंधों का उमड़ा ले चढ़ावा और पाता क्या !
अब इस प्राचीन मंदिर में दया बरसाई है प्रभु ने
खड़ी है कार होंडा भवन में, तंगी से नाता क्या !
कभी मुस्काएं गैरों पर,किसी दिन राह में थमकर
बेचारा भूल के गम अपने सोचेगा,यह रिश्ता क्या !
निरक्षर सोंचता था मैं , वीरानों में ये करता क्या !
तिराहे पर पुलिस के हाथ जोड़ा करता बरसों से,
मैं मूरख सोंचता था, इन मज़ारों से ये खाता क्या !
कमाई आधी रिश्वत में निछावर कर, बना मंदिर !
शहर अंधों का उमड़ा ले चढ़ावा और पाता क्या !
अब इस प्राचीन मंदिर में दया बरसाई है प्रभु ने
खड़ी है कार होंडा भवन में, तंगी से नाता क्या !
कभी मुस्काएं गैरों पर,किसी दिन राह में थमकर
बेचारा भूल के गम अपने सोचेगा,यह रिश्ता क्या !
कमाई आधी रिश्वत में , निछावर कर बना मंदिर !
ReplyDeleteशहर अंधों का उमड़ेगा,चढ़ाये क्या औ लेता क्या !
.दिखावा ज्यादा करते हैं लोग ....देव को पूजते हैं इंसान को इंसान नहीं समझते ..कैसे खुश होंगे भगवान यह समझ नहीं पाते हैं ...
बहुत सटीक चिंतन
Good.reality expressed so nicely
ReplyDeleteवाह !
ReplyDeleteपर
बड़ी देर में समझे :)
हम पहले समझ गये थे इसी लिये रख लिये :D
कभी मुस्काएं गैरों पर, किसी दिन राह में थम कर
ReplyDeleteबेचारा भूल के गम अपने सोचेगा,यह रिश्ता क्या ..
बहुत खूब सतीश जी ... किसी के मुस्कुराने से कोइ अपने गम भूल सके तो जीवन सार्थक है ...
हर शेर नायाब मोती है ...
बहुत बढ़िया
ReplyDeleteआडम्बर को करारी फटकार के साथ संवेदना भी...वास्तव में अब लोग अपनों को भी देख मुस्कराना भूल रहे हैं गैरों की क्या बिसात ..अच्छा सन्देश है ..
ReplyDeleteआस्था बेच के देखें, कि छप्पर फाड़ आता क्या !
ReplyDeleteबड़ा रूतबा है दाढ़ी में,मनीषी क्या विधाता क्या ----हर पंक्ति आपकी सुंदर और सच्ची सोच है। देश इन्ही के बदौलत तो कराह रहा और ये बमबम हैं।
ईश्वर के नाम पर अपना घर भरने वाले ऊपर से भले सम्पन्न दिखाई दें भीतर से निर्धन होते हैं..सच्चा धन साधना से ही मिलता है.
ReplyDeleteबहुत सुंदर भावनायें और शब्द भी ...बेह्तरीन अभिव्यक्ति ...!!शुभकामनायें.
ReplyDeletesacchai ko ainaa dikhati ye aapki sunder rachna
ReplyDeleteभगवान के नाम पर न हो कर अब मंदिर पैसा लगानेवाले के नाम पर होते हैं - आपने सही पोल खोली है .
ReplyDeleteकभी मुस्काएं गैरों पर, किसी दिन राह में थम कर
ReplyDeleteबेचारा भूल के गम अपने सोचेगा,यह रिश्ता क्या !
बस, यही सही है...
शेष तो आडंबर मात्र हैं....
अच्छी रचना ।
Waah True !!
ReplyDeleteबेहतरीन रचना
ReplyDeleteप्रणाम स्वीकार करें
बेह्तरीन अभिव्यक्ति
ReplyDeleteबहुत दिनों बाद आना हुआ ब्लॉग पर प्रणाम स्वीकार करें