किशोरावस्था में देखे एक स्वप्न पर आधारित थी,एक रचना जो बरसों पहले लिखी गयी थी, दैवीय शक्ति के आगे बैठा हुआ, अपने लिए एक परी लोक की अप्सरा की मांग की थी, माँ से मैंने ....
मृगतृष्णा सी यह रचना, मानवीय किशोरावस्था की कमजोरी और दमित इच्छाओं को इंगित करती है ....
इतनी सुंदर इतनी मोहक
इतनी चंचल हिरनी जैसी
नाजुक कटि काले केश युक्त
कितनी कोमल फूलों जैसी
लगता सूर्योदय से पहले
उषा की भेंट निराली यह
कवि की उपमा फीकी पड़ती , माँ यह गुडिया मुझको देदो
माँ यह गुडिया मुझको दे दो
घनघोर घटाओं के जग में
उतरी नभ से चपला जैसी
कैसा अनुपम निर्माण किया
आभार तुम्हारा मानूं मैं
है बारम्बार नमन मेरा
इस रचना की निर्मात्री को
सारा जीवन है न्योछावर , माँ ये गुड़िया मुझको दे दो
सारा जीवन है न्योछावर , माँ ये गुड़िया मुझको दे दो
माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
काले जग काले लोगों से
लड़ते लड़ते थक जाता हूँ
अहसास निकटता का इसके
होते ही दिल खिल जाता है
सारी थकान, सारी चोटें
इस मधुर हंसी पर न्योछावर
सारे पुण्यों का फल लेकर माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
पर माँ चिंता है एक मुझे
मैं इस रचना को रखूँ कहाँ
डरता हूँ कालिख लगे हाथ
इसको भी गन्दा कर देंगे
शायद तुम भी क्रोधित होगी
मेरी इस ना समझाई पर
फिर भी दिल में है बात यही , माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
पर एक बात स्पष्ट कहूं
मैं इसके योग्य नहीं हूँ माँ
मैं हूँ सौदागर काँटों का
यह रजनीगंधा सी महके
कैसे समझाऊँ दिल अपना
उद्दंड चाह , छोडूं कैसे ?
तू ही कुछ मुझे सहारा दे , माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
पर माँ चिंता है एक मुझे
ReplyDeleteमैं इस रचना को रखूँ कहाँ
डरता हूँ कालिख लगे हाथ
इसको भी गन्दा कर देंगे
बहुत सुन्दर ... आपकी रचनाओं में मानवीय संवेदना दर्शनीय होती है
पर माँ चिंता है एक मुझे
ReplyDeleteमैं इस रचना को रखूँ कहाँ
डरता हूँ कालिख लगे हाथ
इसको भी गन्दा कर देंगे
बहुत सुन्दर ... आपकी रचनाओं में मानवीय संवेदनाएं दर्शनीय होती हैं
मन की भावनाएं जिद्दी मन मन के द्वन्द को बहुत अच्छे से चित्रित किया है ...बहुत सुन्दर ....माँ ने फिर वो गुडिया दिलवाई या नहीं :):):)
ReplyDeleteयह गुडिया कहीं थी ही नहीं.....सिवाय कवि की कल्पना में
Delete:)
पर एक बात स्पष्ट कहूं
ReplyDeleteमैं इसके योग्य नहीं हूँ माँ
मैं हूँ सौदागर काँटों का
यह रजनीगंधा सी महके
कैसे समझाऊँ दिल अपना
उद्दंड चाह , छोडूं कैसे ?
तू ही कुछ मुझे सहारा दे , माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
माँ यह गुडिया मुझको दे दो
bahut hi sundar rachna !
पर माँ चिंता है एक मुझे
ReplyDeleteमैं इस रचना को रखूँ कहाँ
डरता हूँ कालिख लगे हाथ
इसको भी गन्दा कर देंगे
शायद तुम भी क्रोधित होगी
मेरी इस नासमझाई पर
फिर भी दिल में है बात यही , माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
माँ यह गुडिया मुझको दे दो !
बहुत सुंदर रचना .....मन को मोह गई !
माँ ने गुडिया भले ना दिलवाई हो ...............
ReplyDeleteजो पायी वो क्या कम है गुडिया से??????????????
:-)
गुस्ताखी माफ
अनु