" आपके इस आक्रोश के आगे सिर झुका है मेरा । यह पीडा और आक्रोश हवा के साथ उडना चाहिये हवा जो प्राणवायु बन कर रक्त के कण-कण में मिलती है । हर जुबां से निकलने चाहिये ये शब्द । हर आँख से बहना चाहिये यह पीडा "
पिछले लेख पर लिखे गिरिजा कुलश्रेष्ठ , के इस कमेन्ट ने, इस मार्मिक घटना पर लिखने को दुबारा विवश किया है , आभार उनका कि उन्होंने इसमें छिपी वेदना महसूस की !
काश यह कष्ट औरों को भी हुआ होता !!मैंने ब्लोगिंग की शुरुआत कभी इसलिए नहीं की थी कि मुझे अथवा मेरी लेखनी की तारीफ़ की जाए मेरा उद्देश्य मेरे विचारों को क्रमबद्ध करना मात्र था जिससे मुझे अपने लेखन के प्रति संतुष्टि रहे कि मैंने अपने विचार लेखबद्ध कर दिए हैं और यह समाज के लिए , यदि मेरे बाद भी पढ़ना चाहे तो उपलब्द्ध रहे !
मगर पिछले लेख में, मैंने किये गए कमेंट्स का पुनरावलोकन किया तो पाया कि बेहद आवश्यक और दर्दनाक , इस लेख को भी बहुत कम लोगों ने ध्यान से पढ़ा, अधिकतर कमेन्ट बिना पढ़े ही दिए गए हैं !
बेहद अफ़सोस हुआ ...
एक बहादुर देशभक्त शेर को, देश में ही , बुरी तरह मारा गया और लोगों की यह प्रतिक्रिया है ........ और भी अफ़सोस की बात यह है कि महेंद्र कर्मा की कष्टदायी मृत्यु के बाद , कम्युनिस्टों की यह प्रतिक्रिया थी कि एक नेता की मृत्यु पर इतनी चिल्ल पों क्यों हो रही है ( पिछली पोस्ट पर सुज्ञ जी का कमेन्ट देखें )!
क्योंकि उन्हें पता था कि आज यह देश हिजड़ों और चोरों का देश है एक शेर के मरने पर, इस देश के निवासी, चिल्ल पों से अधिक कुछ नहीं कर पायेंगे !
और देश के नमक हरामों ने ज़श्न मनाया था इस बहादुर इंसान के दम तोड़ने पर ! उसकी लाश पर सैकड़ों वार करने के बाद, उसपर नाच कर, ख़ुशी ज़ाहिर की गयी थी और शहीद की लाश के साथ, यह सब उसके अपने देश में हुआ !
इस दर्दनाक म्रत्यु के बाद, कुछ ने उन्हें कांग्रेसी नेता कहा तो किसी की नज़र में वे पुराने कम्युनिस्ट नेता मात्र ही थे ...
मुझे लगता है कि हमारा चरित्र ही घ्रणित हो चुका है , शायद हम इस योग्य ही नहीं हैं कि हम अपने बीच जीवित बचे, शानदार लोगों की पहचान कर सकें ...
मैं इस घटना से पहले महेंद्र कर्मा का नाम भी नहीं जानता था , जिस दिन यह खबर आई तो मुझे लगा कि उग्रवादियों के द्वारा, एक राजनैतिक नेता की ह्त्या ,कर दी गयी है , मगर जब महेंद्र सिंह करमा की पृष्ठभूमि और उस दिन की घटना दुबारा पढ़ी तो लगा कि सुभाष चन्द्र बोस की दुबारा ह्त्या कर दी गयी और देश में किसी को शर्म नहीं आई !
हाँ ,अगले दिन जगह जगह प्रतिक्रियाएं देखने को मिलीं कम्युनिस्टों की , जो आदिवासियों पर भारत सरकार के अत्याचार की कहानी बता रहीं थीं और इस दुर्दांत घटना को, आदिवासियों की एक हिंसक प्रतिक्रिया , जिसमें महेंद्र करमा जैसे जुझारू नेता के साथ छत्तीसगढ़ के कांग्रेस अध्यक्ष एवं विद्याचरण शुक्ल जैसे राजनेताओं को मिटा देने की एक सफल हिंसक साज़िश की गयी थी !
एक और शर्मनाक तथ्य यह भी था कि छतीस गढ़ से किसी पत्रकार शेर ने भी अपनी कलम नहीं उठाई कि कहीं सत्ता पक्ष के आका नाराज़ न हो जाएँ कि कांग्रेसियों के लिए लिखा जा रहा हैं,यहाँ पर देश के लिए जान देने वाले इस बहादुर की पहचान, कांग्रेसी नेता की ही मानी गयी थी !
पूरे छत्तीस गढ़ में एक ही शेर था, जिसे यह पता था कि वह सशस्त्र नक्सल वाद से, उनके गढ़ में, अकेला बिना किसी सहारे के, लड़ रहा है और देर सवेर इस कमज़ोर, अशिक्षित, नासमझों के देश में उसका मारा जाना तय है !
जब नक्सलवादी घेर के लोगों को मार रहे थे तब महेंद्र कर्मा ने खड़े होकर अपील थी कि निर्दोषों को न मारा जाय तुम लोग जिसे ढूंढ रहे हो वह मैं हूँ और नक्सल वादियों ने उसके हाथ बाँध कर उस 70 से अधिक बार चाकुओं से धीरे धीरे गोदा ताकि उन्हें अधिक दर्द हो ...
लेखन जगत की प्रति क्रियाएं हमारे देश की मनोदशा व्यक्त करने को काफी हैं जो कम से कम मेरी नज़र में बेहद शर्मनाक हैं !
थू है हमारी मानसिकता पर ...
निसंदेह महेंद्र कर्मा जी,छत्तीसगढ़ के शेर थे,उनकी मौत की पूर्ती आज छत्तीसगढ़ का कोई नेता किसी भी पार्टी का हो पूरा नही कर सकता,,,
ReplyDeleterecent post : ऐसी गजल गाता नही,
मुझे लगता है कि हमारा चरित्र ही घ्रणित हो चुका है , शायद हम इस योग्य ही नहीं हैं कि हम अपने बीच जीवित बचे शानदार लोगों को पहचान कर सकें ...
ReplyDeleteआप सच कह रहे हैं और हमें हमारे इस चरित्र से नफ़रत सी हो रही है. बेहद अफ़्सोसनाक.
रामराम.
इस घटना से पूर्व महेंद्र कर्मा का नाम भी नही सुना था परंतु घटना के बाद के हालात में उनके बारे में जानने का मौका मिला, वाकई एक शानदार और शेरदिल आदमी खो दिया, ऐसे ही लोगों की आज भारत को जरूरत है, नमन.
ReplyDeleteरामराम
विचारणीय, सार्थक आलेख
ReplyDeleteवाकई अब तो ऐसा लगता है
ReplyDeleteआप बहुत सही बात कह रहें हैं
सार्थक और सटीक
बहुत खूब
आग्रह है
गुलमोहर------
महेंद्र कर्मा जैसे नेता के विषय में इस घटना के बाद ही जानकारी मिली .... सच है मानसिकता ही विकृत हो चुकी है ...
ReplyDeletesatish ji aapki pratikriya hi ye batati hai ki aaj bhi hamare desh me bahaduri ka samman hai han itna zaroor hai ki apne swarth vash log rajneetigyon kee tarah hi bate karne lagte hain ,kintu ek bat yahan ye bhi hai ki karma kee pahchan ek congressi ke roop me hona bhi koi galat nahi hai kyonki ve is parivar se jude the aur aisa nahi ki sadaiv se jude the ve ise chhodkar chale gaye the aur fir unhe koi bat to isme dikhi hogi jo ise jude aur isliye ye koi afsos kee bat nahi ki unhen congressi kaha jaye afsos keval ye hai ki keval ekpakshiy okar sochne lag jayen .ye hamara desh hai aur yahan anek dal hain aur apni vichardhara ke anusar ham inse judte hain kintu galat ye hai ki ham apne ko sahi aur doosre ko poori tarah galat kahte hain jabki karma ji ke mamle me galat keval ek hinsak soch hai jo asamay hamse aise bahadur ko chheen leti hai .
ReplyDeleteशालिनी जी की उपरोक्त प्रतिक्रिया को हिंदी रूपांतर दे रहा हूँ :
Deleteसतीश जी,
आपकी प्रतिक्रिया ही बताती है कि आज भी हमारे देश में बहादुरी का सम्मान है, हाँ इतना ज़रूर है कि अपने स्वार्थवश लोग राजनीतिज्ञों की तरह ही बातें करने लगते हैं किन्तु एक बात यहाँ यह भी है कि करमा की पहचान एक कांग्रेसी के रूप में होना भी कोई गलत नहीं है क्योंकि वे इस परिवार से जुड़े थे और ऐसा नहीं कि सदैव से जुड़े थे वे इसे छोड़ कर चले गए थे और फिर उन्हें कोई बात तो इसमें दिखी होगी जो इससे जुड़े और इसीलिए ये कोई अफ़सोस की बात नहीं कि उन्हें कांग्रेसी कहा जाये अफ़सोस केवल यह है कि केवल एक पक्षीय होकर सोंचने लग जाएँ. यह हमारा देश है और यहाँ अनेक दल है और अपनी विचारधारा के अनुसार हम इनसे जुड़ते हैं किन्तु गलत यह है कि हम अपने को सही और दूसरे को पूरी तरह गलत कहते हैं जबकि करमा जी के मामले में गलत केवल एक हिंसक सोच है जो असमय हमसे ऐसे बहादुर को छीन लेती है ...
मैं आपकी इस टिप्पणी से पूरी तौर पर सहमत हूँ शालिनी जी ...
Deleteकांग्रेसी के रूप में इन्हें मेरे लेख में कभी गलत नहीं कहा , कोई भी देशभक्त चाहे कांग्रेसी हो अथवा भाजपाई , समान तौर पर आदरणीय होना ही चाहिए ! यह कांग्रस के बारे में आपको कहाँ से महसूस हुआ मैं समझ ही नहीं पाया !
मेरे विचार किसी पार्टी का सम्मान अथवा असम्मान नहीं करते , महेंद्र करमा की तुलना मैंने सुभाष चन्द्र बोसे से की है , इससे मुझे फर्क नहीं पड़ता अगर वे कांग्रेस की जगह भाजपायी होते , माओवादियों के प्रति उनका संघर्ष , किसी भी देशभक्त का सम्मान अर्जित करने के लिए काफी था व रहेगा !
क्या कहें साहब ? भगवान् मरने की आत्मा को शांति दे और जिंदा लोगों को सद-बुद्धि दे .. हमारे देखे तो हिंसा से कभी कोई समाधान नहीं निकल सकता ...
ReplyDelete
ReplyDeleteमुझे लगता है कि हमारा चरित्र ही घ्रणित हो चुका है , शायद हम इस योग्य ही नहीं हैं कि हम अपने बीच जीवित बचे शानदार लोगों को पहचान कर सकें ...
आप बिल्कुल सत्य महसूस रहे हैं सतीश भाई , वैसे भी जो देश इस आज़ादी को पाने के लिए अपनी जान न्यौछावर कर देने वाले हमारे उन बांकुरों को इतनी जल्दी भूल बैठा , जो देश आज भी सीमा पर देश की आन बान शान के लिए मर मिटने वाले जवानों की लाशों पर राजनीतिक रोटियां सेंकता हो , उस देश से इससे ज्यादा की उम्मीद करना भी बेमानी है ।
spineless logo sae umeed karna hi galt haen
ReplyDeleteसम्वेदनाओँ का संरक्षण रखते हुए सद्भावों, सद्वाणी और सदाचरण पर अटल रहें हम!! निश्चित ही एक दिन आक्रोश,आवेश,आतंक और हिंसा मुँह छुपाएगी!!
ReplyDeleteहमारा जीवन आज कुछ इस प्रकार का हो गया है कि लोग किसी की म्रत्यु पे या तो घडियाली आंसू बहा के लोगों की नज़रों में ऊंचा उठाना चाहते हैं या फिर मरने वाले को ही नसीहत दे डालते हैं | आज के इंसान का एहसास मरता जा रहा है |
ReplyDeleteइनके शौर्य को नमन. वाकई दुखद है जिस तरह सदा के वास्ते खामोश कर दिया गया.
ReplyDeleteहिजड़ों के इस देश में स्वार्थ की आबादी है
ReplyDeleteसब लगे स्व सुख में बस देश की बर्बादी है
शुक्रिया अपने आक्रोश को निर्भीकता से व्यक्त करने के लिए
उफ़ संवेदनहीनता और स्वार्थपरकता की पराकाष्ठा ही राजनीति का दूसरा नाम लगता है अब तो।
ReplyDeleteगजब प्रस्तुति-
ReplyDeleteसादर नमन इस वीर सपूत को -
sir ji bahaduri ke samman me likhe aapke sabdon me vakei prabhav hai
ReplyDeleteveeron ka samman aur saurya ko sweekar karna chahiye aur karna hi hoga ....deshbhakti bhartiya khoon me ghuli huyi hai ..... par mujhe deshbhagato se dar nahi lagta!!!!
sadar naman
ReplyDeleteaise bahadur ko sadar na
ReplyDeleteman
इनके बारे में विस्तार से जानकारी दीजिए नहीं तो आज यही वातावरण बना है कि सारे ही नेता चोर हैं। इसी सोच के कारण ऐसी घटनाओं पर देश में प्रतिक्रिया नहीं होती है।
ReplyDeleteयहाँ की सरकार भी कहती है कि नक्सलियों को रोक दिया गया है पर यहाँ के गाँवों में जाकर पता चलता है कि लोग कैसे उनसे अपनी जान की भीख मांग कर जी रहे हैं .पर यहाँ कोई शेर नहीं है .
ReplyDeleteयह आक्रोश जायज़ है। यहाँ देशभक्तों की नहीं चमचों की चलती है। जिस खेत को बाड़ ही खा जाये उसका तो भगवान् ही रखवाला है।
ReplyDeleteसच्चे सेश भक्त महेंद्र कर्मा जी को नमन...
ReplyDeleteऔर जिस निर्भयता से मृत्यु को वरण किया उन्होंने, वह सिंह सिद्ध हुआ। नमन।
ReplyDelete.
ReplyDelete.
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महेन्द्र कर्मा जी ने नक्सली-माओवादी हिंसा का जवाब उसी शैली में देने के लिये सलवा जुडुम खड़ा किया... एक तरह से वे एक लड़ाई में एक पक्ष के सेनापति थे... और लड़ाईयों में रक्तपात होता ही है, जानें जातीं हैं, उनकी भी जान गयी... परन्तु सामने आसन्न मृत्यु को देख भी जिस निर्भयता व साहस से उन्होंने अपने हत्यारों को खुद को सौंपा व अपने साथ के बाकी लोगों को नुकसान न पहुंचाने की बात की वह उनको एक शानदार और सचमुच का शेरदिल व वीर इंसान साबित करता है... और ऐसे वीर को ७० से ज्यादा घाव दे तड़पा कर मारने वाले चाहे कितना ही अपने को गरीब-मजलूम के लिये लड़ने वाला योद्धा कहें, युद्ध में अपने इस तरह के व्यवहार से उन्होंने स्वयं को कुत्तों और गीदड़ों का समूह ही साबित किया है, भले ही अब वे कोई भी सफाई दे रहे हों...
उस वीर को नमन !
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आभार आपके आने पर ब्लॉग योद्धा ...
Deleteसाथ ही इस शेर को श्रद्धांजलि देने के लिए आभार आपका !
आपका दर्द समझ आता है। आज अगर हम लोग मेरा-तेरा के चक्कर मे इतनी गहराई से फंसे न होते तो आज जैसी हालत कैसे होती? कभी तो समाज-हित और राष्ट्र-हित को अपने से ऊपर रखना सीखना पड़ेगा।
ReplyDeleteअभी परसों उनके बेटे का इंटरव्यू टीवी पर देखा, वो कह रहे थे ये लड़ाई जारी रहेगी, मेरे पिता ने इसके लिए खून बहाया है और मेरे लिए यह बहुत गौरव की बात होगी कि मैं भी अपनी जान देकर अपने पिता की गौरव परंपरा को बढ़ा सकूँ।
ReplyDeleteआपकी पोस्ट पर कह पाये या नहीं कह पाये वो अलग विषय है लेकिन जो हुआ दुखद हुआ। अच्छा हुआ कि आपने अपना आक्रोश प्रकट कर दिया लेकिन एक सवाल तो मेरे मन में भी आ रहा है - क्या वाकई सिर्फ़ एक नेता की ही नृशंस हत्या पर उद्वेलित होना चाहिये, किसी आम आदमी या वेतनभोगी सैनिक की शहादत को गंभीरता से न लेना स्वाभाविक है? यह पहली नक्सली घटना नहीं थी, मेरी समझ में ऐसी हर घटना निंदा की पात्र है चाहे उसमें हताहत होने वाला किसी पार्टी विशेष या पद विशेष वाला न हो। आशा है जिज्ञासा को अन्यथा नहीं ही लेंगे।
ReplyDeleteयकीन करें संजय , मैं किसी पार्टी के पक्ष में कभी नहीं रहा और न यह लेख ...
Deleteयहाँ मैं महेंन्द्र सिंह कर्मा की हिम्मत को, किसी पार्टी से जोड़ने की सोंचना भी, सिर्फ संकीर्ण मनोदशा ही इंगित करेगा !
आप मेरे नज़रिए से एक बार इस लेख को ध्यान से पढ़े शायद आप संतुष्ट हो जायेंगे, माओ वादियों के कृत्य की निंदा बेहद आवश्यक है , बिना इसकी परवाह करे कि उसमें राजनीति क्या कहती है !
आभार भाई !
सतीश जी, मेरे कमेंट को खुद पर व्यक्तिगत बिल्कुल न लें। मैं अकेले आपके किसी पार्टी के पक्ष में होने न होने की नहीं बल्कि हम सबकी सामूहिक बात कर रहा हूँ। किसी पार्टी या विचारधारा के प्रति साफ़्ट कार्नर रखने को भी नितांत स्वाभाविक मानता हूँ। आपको शायद ध्यान नहीं कि रामलीला मैदान में बाबा रामदेव वाले कांड के बाद कैसे लोगों ने चटखारे लेकर पोस्ट्स और कमेंट्स लिखे थे, हमारे आपके जैसे तब भी चुप थे क्योंकि कुछ कहने पर दक्षिणपंथी समझे जाते। म्यांमार के डिस्टोर्टेड वीडियोज़ को गुवाहाटी कांड की तस्वीरें बताकर हमारी मुंबई के आजाद मैदान में शहीद स्मारक को तोड़ा फ़ोड़ा गया लेकिन हम तब भी चुप रहे क्योंकि कुछ कहते तो सांप्रदायिक कहलाते। उससे पहले दंतेवाड़ा में छिहत्तर सैनिकों को नक्सली हमले में मारा गया, हम तब भी इतना उद्वेलित नहीं हुये क्योंकि वे सब आम परिवारों से थे और चूँकि वेतनभोगी थे तो हम ये मानते हैं कि इन्हें पैसे ही मरने के मिलते हैं। हम जागते तभी हैं जब किसी वी.आई.पी. के साथ कुछ हो जाता है। जबकि एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में एक आम नागरिक के साथ पहली अनहोनी होते ही जनता और प्रशासन को चेत जाना चाहिये।
Deleteआपके लेख से संतुष्ट हूँ और पहले भी कई बार कह चुका हूँ कि वाकई आप बहुत भावुक इंसान हैं। अभी भी मैं खुद यही रहा हूँ कि गलत काम की निंदा बिना राजनीति में पड़े ही होनी चाहिये। फ़र्क ये है कि आप सलीके से कह लेते हैं, मैं थोड़ा अनघड़ तरीके से कह पाता हूँ।
आपका अनुज!
Deleteमगर यह लेख किसी वी .आई .पी के लिए नहीं है , और न मैंने कभी वी आई पी के लिए नहीं है !
मैं मानता हूँ कि नित्य होती, सामान्य हिंसक वारदातें, ध्यान आकर्षित करने में अक्सर फेल रहती है, मगर यह व्यक्ति , एक हिंसक विचार धारा के खिलाफ था !
पूरे छत्तीस गढ़ में एक ही शेर था, जिसे यह पता था कि वह सशस्त्र नक्सल वाद से, उनके गढ़ में, अकेला बिना किसी सहारे के, लड़ रहा है और देर सवेर इस कमज़ोर, अशिक्षित, नासमझों के देश में उसका मारा जाना तय है !
मगर मैं तुम्हारे उपरोक्त कमेन्ट से असहमत नहीं हूँ ..
अपनेपन और स्नेह के लिए आभारी हूँ संजय !
शुभकामनायें !
बंधु, कई बार कोई नाम एक बार चलन में आ जाये तो दूसरे लोग भी उसका अनुसरण करने लग जाते हैं. बस्तर टाइगर महेंद्र कर्मा के नाम में आपने 'सिंह' शब्द कहां से जोड़ दिया है, यह समझ में नहीं आ रहा. महेंद्र कर्मा बस्तर के आदिवासी नेता थे और सिंह लिखने से ऐसा लग रहा है कि वे या तो भूमिहार-राजपूत थे या चेरो राजा. बस्तर में कोई भी आदिवासी अपने नाम में कभी सिंह नहीं लगाता.
ReplyDeleteओह !!
Deleteआभार आपका , महेंद्र करमा जी के बारे में अखबारों में ही पढ़ा और जाना हो सकता है वहीँ से यह अचेतन में रहा होगा ! मैं इस भूल को सुधार रहा हूँ
इस रचना में भी सुधार कर दिया है , आभार आपका !
Deletehttp://satish-saxena.blogspot.in/2013/05/blog-post_29.html