इंतज़ार है ! क्षितिज में कबसे,काले घने,बादलों का !
पृथ्वी, मानव को सिखलाये, पाठ जमीं पर रहने का !
गर्म हवा के लगे, थपेड़े,
वृक्ष न मिलते राही को ,
लकड़ी काट उजाड़े जंगल
अब न रहे ,सुस्ताने को !
ऐसे बिन पानी, छाया के,
सीना जलता जननी का !
रिमझिम की आवाजें सुनने,तडपे जीवन धरती का !
चारो तरफ अग्नि की लपटें
निकलें , मानव यंत्रों से !
पीने का जल,जहर बनाये
मानव अपने हाथों से !
मां के गर्भ को खोद के ढूंढे ,
लालच होता रत्नों का !
आखिर मां भी,कब तक देगी संग,हमारे कर्मों का !
उसी वृक्ष को काटा हमने
जिस आँचल में, सोते थे !
पृथ्वी के आभूषण, बेंचे
जिनमें आश्रय पाते थे !
मूर्ख मानवों की करनी से,
जलता छप्पर धरती का !
आग लगा फिर पानी ढूंढे,करता जतन, बुझाने का !
जननी पाले बड़े जतन से
फल जल भोजन देती थी !
शुद्ध हवा, पानी के बदले
हमसे प्यार , चाहती थी !
दर्द से तडप रही मां घर में,
देखे प्यार मानवों का !
नईं कोंपलें , सहम के देखें , साया मूर्ख मानवों का !
जल से झरते, झरने सूखे
नरम मुलायम पत्ते, रूखे
कोयल की आवाज़ न आये
जल बिन वृक्ष, खड़े हैं सूखे
यज्ञ हवन के, फल पाने को,
है आवाहन मेघों का !
हाथ जोड़ कर,बिन पछताये,इंतज़ार बौछारों का !
पृथ्वी, मानव को सिखलाये, पाठ जमीं पर रहने का !
गर्म हवा के लगे, थपेड़े,
वृक्ष न मिलते राही को ,
लकड़ी काट उजाड़े जंगल
अब न रहे ,सुस्ताने को !
ऐसे बिन पानी, छाया के,
सीना जलता जननी का !
रिमझिम की आवाजें सुनने,तडपे जीवन धरती का !
चारो तरफ अग्नि की लपटें
निकलें , मानव यंत्रों से !
पीने का जल,जहर बनाये
मानव अपने हाथों से !
डेली न्यूज़ के सौजन्य से , अच्छा लगता है जब लोग बिना भेजे, रचना को छपने योग्य समझे !आभार ! |
लालच होता रत्नों का !
आखिर मां भी,कब तक देगी संग,हमारे कर्मों का !
उसी वृक्ष को काटा हमने
जिस आँचल में, सोते थे !
पृथ्वी के आभूषण, बेंचे
जिनमें आश्रय पाते थे !
मूर्ख मानवों की करनी से,
जलता छप्पर धरती का !
आग लगा फिर पानी ढूंढे,करता जतन, बुझाने का !
जननी पाले बड़े जतन से
फल जल भोजन देती थी !
शुद्ध हवा, पानी के बदले
हमसे प्यार , चाहती थी !
दर्द से तडप रही मां घर में,
देखे प्यार मानवों का !
नईं कोंपलें , सहम के देखें , साया मूर्ख मानवों का !
जल से झरते, झरने सूखे
नरम मुलायम पत्ते, रूखे
कोयल की आवाज़ न आये
जल बिन वृक्ष, खड़े हैं सूखे
यज्ञ हवन के, फल पाने को,
है आवाहन मेघों का !
हाथ जोड़ कर,बिन पछताये,इंतज़ार बौछारों का !
से बिन पानी, छाया के, सीना जलता जननी का !
ReplyDeleteरिमझिम की आवाजें सुनने,तडपे जीवन धरती का !..
अब तो आ ही जानी चाहिए रिमझिम की फुहार ... तपती धरती की है यही पुकार ...
आपका गीत लाजवाब है सतीश जी ...
हमारी करनी का फल भुगतेंगे हमीं।
ReplyDeleteसुंदर रचना व लेखन , सतीश भाई धन्यवाद !
ReplyDeleteI.A.S.I.H - ब्लॉग ( हिंदी में समस्त प्रकार की जानकारियाँ )
कल वृक्ष विहीन हाई-वे के ऊपर चटक चाँदनी धूप में ड्राइव करते हुये...कुछ ऐसा ही ख्याल दिल में आया था...राजा अशोक सड़क के दोनों ओर छाया और फलदार वृक्ष लगवाया करते थे...अब सब के पास सुस्ताने का समय भी नहीं है...
ReplyDeleteजलती हुई धरती..तपती हुई हवा और प्यासे प्राणी..अब तो बरसों हे मेघा..
ReplyDeleteजल से झरते, झरने सूखे
ReplyDeleteनरम मुलायम पत्ते, रूखे
कोयल की आवाज़ न आये
जल बिन वृक्ष, खड़े हैं सूखे
बहुत सुन्दर भाव अभिव्यक्ति आभार
बहुत सुंदर रचना.
ReplyDeleteबहुत ही सुंदर लाजवाब गीत है सतीश जी ..
ReplyDeleteसटीक चित्रण-
ReplyDeleteआभार आदरणीय-
हर रचना की तरह एक और लाजवाब रचना :)
ReplyDeleteLet this intense appeal brings showers!
ReplyDeleteल से झरते, झरने सूखे
ReplyDeleteनरम मुलायम पत्ते, रूखे
कोयल की आवाज़ न आये
जल बिन वृक्ष, खड़े हैं सूखे
यज्ञ हवन के, फल पाने को, है आवाहन मेघों का !
हाथ जोड़ कर,बिन पछताये,इंतज़ार बौछारों का !
.. बहुत सटीक ... हम नासमझ इन्सान नहीं समझते तभी तो भोगते हैं
.. अब तो आ बरसो बादलो!!
हम अभी पचमढ़ी की वादियों में क्या गए कि शहर की आग उगलती सड़कों पर लौटने का मन नहीं कर पा रहा था ...खैर जाएँ भी तो कहाँ आखिर लौटकर घर आना ही पड़ता है
aaj ke sandarv me sarthak rachna.....
ReplyDeleteA soft environmental concern - an affiliation attachment with mother Earth. Good Composition. Regards.
ReplyDeleteसुप्रभात बहुत सुन्दर रचना अभिव्यक्ति आभार
ReplyDeleteजबरदस्त!!
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