यह हमारे बुज़ुर्ग -सतीश सक्सेना
अविनाश वाचस्पति का यहाँ लिखा पहला लेख "माता पिता की उंगली श्रष्टिनियंता की होती है " का शीर्षक पढ़ कर ही आँखों में आंसू छलछला उठे, मैंने यह ऊँगली कभी नहीं पकड़ी ! मैंने अपने बचपन में क्या गुनाह किया था कि परमपिता ने यह कठोर कदम उठाया, शायद धर्म विवेचना में सिद्ध विद्वान् इसका उत्तर दे सकने में समर्थ हों पर जिस बच्चे से 3 वर्ष में माँ और 6 वर्ष में पिता छिन गए हों वह आज भी यह समझने में असमर्थ है ! शायद यह क्रूर घटना किसी को भी ईश्वरीय सत्ता पर से अविश्वास कराने के लिए काफी है...
आज के समय में ,जब मैं घर के ६५-७० वर्षीय बुजुर्गों, को मोहल्ले की दुकान पर ही खड़े होकर, खरीदे गए सामान में से ,जल्दी जल्दी कुछ खाते हुए देखता हूँ तो मुझे अपने माता पिता याद आते हैं कि काश वे लोग होते और मुझे उनकी सेवा का मौका मिला होता यकीनन वे एक सुखी माता पिता होते ! मगर मुझ अभागे की किस्मत में यह नहीं लिखा था ..
और क्या अपना खून देकर आपको सींचने वाली माँ की स्थिति कहीं ऐसी तो नहीं ? अगर हाँ तो निश्चित मानिए आपके साथ इससे भी बुरा होगा !
jinse apanapan mile vo hee apane hai ..............
ReplyDeleteaankhe num ho aaee hai..........
bado ka anadar karane walo ko ishvar satbudhee de.....
Aasheesh
कहते हैं जब राधा ने बहती हुई मंजूषा में कवच कुंडल सुशोभित शिशु को पाया था तो उस बाँझ स्त्री के स्तनों में भी दूध का संचार होने लगा था... मातृत्व का कोई मोल नहीं... सर! बहुत ही अच्छी पोस्ट!!
ReplyDeleteमाँ की याद बहुत आ रही है , आखे नम हो गयी हैं , शायद इसीलिए बहुत से लोग भगवान को नहीं मानते ।
ReplyDeleteसतीश जी जिन्होको भगवान ने मां बाप दिये है वो बेवकुफ़ उन की कदर नही करते, उन्हे बोझ समझते है, तभी तो यह बुजुर्ग बाजार मै खडे हो कर जल्दी जल्दी खाते है, ओर जिन अभागो के मां बाप नही वो इस प्यार को तरसते है... आज आप ने भावुक कर दिया.
ReplyDeleteधन्यवाद
मेरी निंदिया है मां, तेरे आंचल में,
ReplyDeleteतू शीतल छाया है, दुख के इस जंगल में...
जय हिंद...
सतीश जी
ReplyDeleteआपकी लेखनी गुस्ताख है
इतनी गहराई में उतार देती है कि बस -- नम हैं आँखे माँ को याद करके जिसे मैनें उनकी झुर्रियों से पहचाना था.
माँ को नमन
ReplyDeleteयही तो विडम्बना है , जिनके होते हैं वे उनका महत्त्व नहीं समझते । बचपन में बच्चों को मां बाप की और मां बाप को बुढ़ापे में बच्चों की ज़रुरत होती है।
ReplyDeleteऔर जिनको ये नेमत नसीब है ...वे कुछ करते नहीं ...या कर नहीं पाते ....!!
ReplyDelete.....काश वे लोग होते और मुझे उनकी सेवा का मौका मिला होता यकीनन वे एक सुखी माता पिता होते ! मगर मुझ अभागे की किस्मत में यह नहीं लिखा था .. ...
ReplyDeleteKassh !
I also miss my mom !
भावुक कर गये आपके भाव । माता-पिता, बस माता-पिता हैं । उपमायें नहीं समेट सकती उन्हें शब्दों में ।
ReplyDelete'आज के समय में जब मैं घर के 65-70 वर्षीय……………' प्रेमचन्द की 'बूढ़ी काकी'की याद ताज़ा हो गई।विकास और आधुनिकता के तमाम दावों के बावजूद शायद कुछ भी नहीं बदला है।
ReplyDeleteमार्मिक आलेख।
आप का पोस्ट पढने के बाद मन भर आया... माँ के नहीं होने का दर्द ओही जान सकता है जिसको माँ नहीं मिली है... बाकी हमरा त इहे मानना है कि जिन्नगी में जिसने आपके ऊपर ममता का छाँव रख दिया ओही माँ है... सायद इसीलिए लोग पत्थर का मूरत को भी माँ मान लेता है.हम त एक्के बात कहेंगे कि
ReplyDeleteजिसको नहीं देखा हमने कभी फिर उसकी ज़रुरत क्या होगी
ऐ माँ! तेरी सूरत से अलग, भगवान की सूरत क्या होगी.
apki lekhni ko naman.
ReplyDeleteहमेशा की तरह आपकी लेखनी से निकली एक और सशक्त रचना.
ReplyDeleteरामराम.
माँ से बढ़ कर कोई नहीं....मातृ दिवस क्या उन्हे याद करने के लिए सारी जिंदगी कम है....माँ को सादर नमन...
ReplyDelete
ReplyDeleteनम हैं आँखे
आंखे नम हो आई है,मां तो मेरे पास है,बस बाबूजी की कमी खल रही है।
ReplyDeletemujhe bhi rula diya... aankhe nam ho gai... SUNDER RACHNA
ReplyDeletewah.kya baat hai.
ReplyDelete..अंडमान में अपने माँ की याद दिला दी..बेहतरीन पोस्ट ..बधाई.
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'शब्द सृजन की ओर' पर 10 मई 1857 की याद में..आप भी शामिल हों.