जिस दिन एक बेटी अपने घर से, अपने परिवार से, अपने भाई, मां तथा पिता से जुदा होकर अपनी ससुराल को जाने के लिए अपने घर से विदाई लेती है, उस समय उस किशोर मन की त्रासदी, वर्णन करने के लिए कवि को भी शब्द नही मिलते ! जिस पिता की उंगली पकड़ कर वह बड़ी हुई, उन्हें छोड़ने का कष्ट, जिस भाई के साथ सुख और दुःख भरी यादें और प्यार बांटा, और वह अपना घर जिसमें बचपन की सब यादें बसी थी.....
इस तकलीफ का वर्णन किसी के लिए भी असंभव जैसा ही है !और उसके बाद रह जातीं हैं सिर्फ़ बचपन की यादें, ताउम्र बेटी अपने पिता का घर नही भूल पाती ! पता नहीं किस दिन, उसका अपना घर, मायके में बदल जाता है !
और "अपने घर" में रहते, पूरे जीवन वह अपने भाई और पिता की ओर देखती रहती है !
राखी और सावन में तीज, ये दो त्यौहार, पुत्रियों को समर्पित हैं, इन दिनों का इंतज़ार रहता है बेटियों को कि मुझे बाबुल का या भइया का बुलावा आएगा , उम्मीद करती है उसको, उसके घर पर याद किया जा रहा होगा !
पकड़ के उंगली पापा की
जब चलना मैंने सीखा था !
पास लेटकर उनके मैंने
चंदा मामा जाना था !
इस तकलीफ का वर्णन किसी के लिए भी असंभव जैसा ही है !और उसके बाद रह जातीं हैं सिर्फ़ बचपन की यादें, ताउम्र बेटी अपने पिता का घर नही भूल पाती ! पता नहीं किस दिन, उसका अपना घर, मायके में बदल जाता है !
और "अपने घर" में रहते, पूरे जीवन वह अपने भाई और पिता की ओर देखती रहती है !
राखी और सावन में तीज, ये दो त्यौहार, पुत्रियों को समर्पित हैं, इन दिनों का इंतज़ार रहता है बेटियों को कि मुझे बाबुल का या भइया का बुलावा आएगा , उम्मीद करती है उसको, उसके घर पर याद किया जा रहा होगा !
पकड़ के उंगली पापा की
जब चलना मैंने सीखा था !
पास लेटकर उनके मैंने
चंदा मामा जाना था !
बड़े दिनों के बाद याद
पापा की गोदी आती है !
पता नहीं माँ सावन में, यह ऑंखें क्यों भर आती हैं !
पता नहीं जाने क्यों मेरा
मन , रोने को करता है !
न जाने , क्यों आज मुझे
सब सूना सूना लगता है !
बड़े दिनों के बाद रात ,
पापा सपने में आए थे !
आज सुबह से बार बार बचपन की यादें आतीं हैं !
क्यों लगता अम्मा मुझको
इकला पन मेरे जीवन में ,
क्यों लगता जैसे कोई
गलती की माँ लड़की बनके,
न जाने क्यों तड़प उठीं ये
आँखें , झर झर आती हैं !
इकला पन मेरे जीवन में ,
क्यों लगता जैसे कोई
गलती की माँ लड़की बनके,
न जाने क्यों तड़प उठीं ये
आँखें , झर झर आती हैं !
अक्सर ही हर सावन में माँ, ऑंखें क्यों भर आती हैं !
एक बात बतलाओ माँ ,
एक बात बतलाओ माँ ,
मैं किस घर को अपना मानूँ
जिसे मायका बना दिया ,
या इस घर को अपना मानूं !
कितनी बार तड़प कर माँ
भाई की , यादें आतीं हैं !
पायल, झुमका, बिंदी संग , माँ तेरी यादें आती हैं !
जिसे मायका बना दिया ,
या इस घर को अपना मानूं !
कितनी बार तड़प कर माँ
भाई की , यादें आतीं हैं !
पायल, झुमका, बिंदी संग , माँ तेरी यादें आती हैं !
आज बाग़ में बच्चों को
जब मैंने देखा, झूले में ,
खुलके हंसना याद आ गया
जो मैं भुला चुकी कब से
नानी,मामा औ मौसी की
चंचल यादें ,आती हैं !
सोते वक्त तेरे संग छत की याद वे रातें आती हैं !
सोते वक्त तेरे संग छत की याद वे रातें आती हैं !
तुम सब भले भुला दो ,
लेकिन मैं वह घर कैसे भूलूँ
तुम सब भूल गए मुझको
पर मैं वे दिन कैसे भूलूँ ?
छीना सबने , आज मुझे
उस घर की यादें आती हैं,
उस घर की यादें आती हैं,
बाजे गाजे के संग, बिसरे घर की यादें आती है !
मेरी ख़्वाहिश है कि मैं फिर से फ़रिश्ता हो जाऊँ
ReplyDeleteमाँ से इस तरह लिपट जाऊँ कि बच्चा हो जाऊँ
WAH SATISH BHAI.... BAHUT KHUB.
क्यों लगता अम्मा मुझको
ReplyDeleteइकलापन सा इस जीवन में
क्यों लगता मां , जैसे कोई
गलती की, लड़की बन के !
बड़े दिनों के बाद आज यादें उस घर की आयीं हैं !
पता नहीं मां सावन में,यह ऑंखें क्यों भर आती हैं
हृदय स्पर्शी कविता
सच है लेकिन ऐसा क्यों होता है कि हमेशा नारी को ही अपने परिवार से छूटने का दुख झेलना पड़ता है ,इस रीत को बनाने वाले की शायद अपनी बेटियां नहीं होंगी बस केवल यही कामना है कि बेटियां हों या बेटे जहां भी हों ख़ुश रहें
...बहुत सुन्दर!!!
ReplyDeleteसक्सेना जी,
ReplyDeleteआज तो कतई इमोशनल कर गये आप।
जिस घर मेरा बचपन बीता वो घर भूल न पाती हूं....
ReplyDeleteबाट जोहता है भैया मेरा-ये मैं जान जाती हूँ....
इसीलिए माँ -हर सावन में राखी के बहाने आती हूँ....
झूला देख मुझको--माँ पापा की बांहें याद आती है ...
इसीलिए शायद सावन मेंमेरी आँखें भर आती है ....
बहुत भावुक करने वाले भाव हैं रचना में ।
ReplyDeleteकिस घर को अपना बोलूं माँ
ReplyDeleteकिस दर को , अपना मानूं !
भाग्यविधाता ने क्यों मुझको
जन्म दिया है , नारी का,
बड़े दिनों के बाद, आज भैया की याद सताती है
पता नहीं क्यों सावन में पापा की यादें आती है !bahut hi gahre khyaal
भावुकता से ओत प्रोत सुन्दर रचना. आभार.
ReplyDeletebahut emotional kar diya ise rachana ne...........
ReplyDeletepyare bhav liye sunder abhivykti .........
itna meetha...
ReplyDeleteब्लॉग ने अपने नाम को अब पुनः सार्थक किया है.माँ पर लिखी जा रही कविताओं में उल्लेखनीय. बेहद मर्मस्पर्शी !
ReplyDeleteआँखें भर भर आईं हैं
ReplyDeleteयादें जो उफनाईं हैं
बड़े ही भावनात्मक विषय को सहेज कर प्रस्तुत कर दिया।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर!!!
ReplyDeleteक्या बोलू?
ReplyDeleteक्या कहूँ?
हाँ एक औरत होने के नाते ये जानती हूं जिस घर में प्ले बढे वो घर छूट कर भी कभी नही छूटता हमसे. जीवन भर चिपका रहता है,पर.....अब तो कोई भी नही उस घर में जो....
इंतज़ार करने और बेटी का रास्ता देखने वाली आँखें बंद हो चुकी है कभी की....
एक गाना है ना 'अबके बरस भेज भैया का बाबुल सावन में लीजो बुलाय रे' पर...किस से कहूँ?
कितना भावुक कर दिया सतीश आपने मालूम है?आप क्या जाने जिनका ससुराल और पीहर में जब कोई इंतज़ार करने वाला नही रहता तब...?????
हा हा हा
हा हा हा
खुश हूं फिर भी.
क्या कहूँ सतीश जी .....?
ReplyDeleteइस कदर स्त्री मन को पहचानने के लिए शुक्रिया ........!
कौन कहेगा की इसे एक पुरुष ने लिखा है ......
ये हर स्त्री की व्यथा है .....न वह पिता के घर को भुला पाती है .....न ससुराल में रम पाती है ...
शायद ही कोई भाग्यशाली स्त्री होगी जिसे ससुराल में पिता से ज्यादा प्यार मिला हो.....
आपने एक एक शब्द में दर्द पिरो दिया है .....
आज फिर ज़ख्म हरे हो गए .......
बहुत सुन्दर, हृदय-स्पर्शी रचना है सतीश जी. इस रचना ने भी कुछ उसी तरह उद्वेलित किया है, जैसे मुझे आशा जी का गाया बन्दिनी फ़िल्म का गीत " अब के बरस भेज भैया को बाबुल...." करता है. बहुत सुन्दर. आभार.
ReplyDeleteबहुत संवेदनशील रचना..हर लडकी अपने मायके को पूरी ज़िंदगी नहीं भूल पाती.....सुन्दर अभिव्यक्ति..
ReplyDeleteभावुक करती रचना, सतीशा भाई..बहुत उम्दा!
ReplyDeleteस्त्री मन की कोमलतम भावना को पुरुष की कलम से पढना बहुत ही सुखद है ...!
ReplyDelete.
ReplyDeleteबहुत सुन्दर प्रस्तुति । एक स्त्री के मन को मथने वाले भावों की सुन्दर प्रस्तुति । काश आप जैसा भाई, दोस्त, पिता सबको मिले।
.
dil ko chhoone vala geet hai yah.badhai satish bhai, vilamb se aane k liye.
ReplyDeleteसतीश भाई, आपकी भावप्रधान इस पोस्ट ने सहसा मुझे भी अहसास कराया कि मैं भी अपनी नन्ही लाडली का बाबुल हूं...
ReplyDeleteसाडा चिड़िया द चंबा वे बाबुल असा टूर जाना,
साडी लंबी फुडारी वे असां हाथ नहीं आना...
(हमारा चिड़ियों का घोंसला है, बाबुल हमने एक दिन चले जाना है,
हमारी लंबी उड़ान है, हमने हाथ नहीं आना)
जय दिन...
सतीश भाई, मेरे भावुक होने का इसी से पता चलता है कि ऊपर जय हिंद की जगह जय दिन लिख गया...
ReplyDeleteजय हिंद...
इन आँखों में भी सावन भर आया ...और क्या कहूँ .
ReplyDeleteSAHI KAHAA AAPNE !!!
ReplyDeleteसतीश जी
ReplyDeleteवाकई बड़ी खूबसूरती से आपने स्त्री मन को छू दिया.... जिस घर में बरसों रहे हों उसे छोड़ना किसी लड़की के लिए निश्चित ही बहुत भरी लगता होगा......! मार्मिक रचना के लिए धन्यवाद
सतीश जी बहुत ही संवेदनशील कविता है। लेकिन आज कल ये व्यथा कितनी सच है? आज कल टेकनोलोजी और आर्थिक स्वतंत्रता के युग में लड़कियों को ये व्यथा कम ही सहनी पड़ती है है । इन्दू जी भी सही कह रही हैं, व्यथा ये नहीं कि घर न जा सके, घर तो कभी भी उठ कर चले जायेगें, व्यथा ये है कि अब बाट जोहने वाला वहां कोई नहीं।वैसे कब है राखी?…॥:)
ReplyDeleteबहुत ही संवेदनशील रचना. अति भावुक....निशब्द हुं. शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
चाचा जी पूरा पढ़ने के बाद शायद ही कोई शक्स होगा जिसकी आँखों में आँसू ना आ जाए बेहद मार्मिक और संवेदना से भरी प्रस्तुति..यह भी एक अनोखी रीति है बचपन से उस परिवार की एक खास सदस्य होने वाली बेटी एक पल में पराई है जाती है ..और कभी कभी तो उस घर से रिश्ता जुड़ता है जिसके बारे में पहले से कुछ पता नही होता फिर भी सहर्ष स्वीकार कर लेना अपना धर्म समझती है...
ReplyDeleteमार्मिक गीत...प्रस्तुति के लिए धन्यवाद चाचा जी
बहुत भावुक करने वाले भाव हैं रचना में ।
ReplyDeleteआँखों को भिगो गयी ये रचना और मुझे मेरे पापा की याद दिला गयी.
ReplyDeleteअपने घर का मायके में बदल जाना बेटी के लिए एक नया और त्रासद अनुभव होता है. इस भावप्रधान कविता के लिए साधुवाद. आज यद्यपि परिस्थितियाँ बदली भी हैं. बेटियाँ नित्य ही घंटों अपने माँ- बाप, भाई बहनों से फ़ोन या इंटरनेट के जरिये संपर्क में रहती हैं और सास- बहू और ससुर-बहू की केमिस्ट्री भी बदल रही है, तथापि अपने बचपन के घर का बिछुड़ना वह नहीं भुला पाती.
ReplyDeleteआँखें नाम हो गयी इस रचना को पढ़ कर ... ग़ज़ब है सतीश जी ये रचना ... हिला देने की ताक़त रखती है ....
ReplyDeleteBehad bhaw prawan rachna beti ka hriday undel kar rakh diya aapne kawita men aur aakhri wala to rula hee gaya.
ReplyDeleteमर्मस्पर्शी रचना .
ReplyDeleteaap kanha vyast hai aajkal ........?
ReplyDeleteanupastithee darj kara dee hai...........
:)
बहुत ही मार्मिक और दिल को झकझोरने वाली रचना। रुला कर रख दिया इसने।
ReplyDeleteबाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले... गीत देख-सुनकर किसी भी बेटी के पिता की आँखें भर आती हैं।
ReplyDeleteकविता बहुत ही उम्दा और दिल को छू लेने वाली है।
Hey Bhagwan!
ReplyDeleteBhaut umda aur dil ko choo lene wali Kavita hai...
Padh kar lagta hai ki aap rishoon ko bharpoor jeete hain.
Abhar!
बेहद भावपूर्ण रचना है ...
ReplyDeleteस्त्री दो घर की मर्यादाओ का सम्मान रखती है।
ReplyDeleteबेटियां तथा पुत्र वधु स्त्री-स्वरूपा है, पूजनीय होती है।
जहाँ स्त्रियां सम्मानित है,वह घर स्वर्ग तुल्य है।
स्त्री के प्रति भावपूर्ण कविता
सच में आँख भर आई
ReplyDeleteकहाँ से इतने मार्मिक भाव शब्द ले आत हैं सतीश जी भावुक हो गई ये गीत पढ़ के बहुत बहुत बधाई आपको सावन की शुभकामनाये
ReplyDeleteदिल को छू लेनेवाली रचना
ReplyDeleteकितनी आँखें तो बारहों महीने बरसात ही बनी रहती है --दिल को छू गई आपकी ये रचना।
ReplyDeleteDaughters and sisters are very precious, we always keep them close to hearts. Their emotions have great value. Very good.
ReplyDeleteBeautiful, as always!
ReplyDeletesalute sir too touching
ReplyDeletesalute sir too touching
ReplyDeleteअदभुद
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