पास लेटकर उनके मैंने
चंदा मामा जाना था !
बड़े दिनों के बाद याद
पापा की गोदी आती है
पता नहीं माँ सावन में, यह ऑंखें क्यों भर आती हैं !
चंदा मामा जाना था !
बड़े दिनों के बाद याद
पापा की गोदी आती है
पता नहीं माँ सावन में, यह ऑंखें क्यों भर आती हैं !
पता नहीं जाने क्यों मेरा
मन , रोने को करता है !
बार बार क्यों आज मुझे
सब सूना सूना लगता है !
बड़े दिनों के बाद आज,
पापा सपने में आए थे !
आज सुबह से बार बार बचपन की यादें आतीं हैं !
क्यों लगता अम्मा मुझको
इकलापन सा इस जीवन में,
क्यों लगता जैसे कोई
गलती की माँ, लड़की बनके,
न जाने क्यों तड़प उठी ये
आँखें झर झर आती हैं !
अक्सर ही हर सावन में माँ, ऑंखें क्यों भर आती हैं !
एक बात बतलाओ माँ ,
मैं किस घर को अपना मानूँ
जिसे मायका बना दिया या
इस घर को अपना मानूं !
कितनी बार तड़प कर माँ
भाई की यादें आतीं हैं !
पायल, झुमका, बिंदी संग , माँ तेरी यादें आती हैं !
आज बाग़ में बच्चों को
जब मैंने देखा, झूले में ,
खुलके हंसना याद आया है,
जो मैं भुला चुकी कब से
नानी, मामा औ मौसी की
चंचल यादें ,आती हैं !
सोते वक्त तेरे संग, छत की याद वे रातें आती हैं !
तुम सब भले भुला दो ,
लेकिन मैं वह घर कैसे भूलूँ
तुम सब भूल गए मुझको
पर मैं वे दिन कैसे भूलूँ ?
छीना सबने, आज मुझे
उस घर की यादें आती हैं,
बाजे गाजे के संग बिसरे, घर की यादें आती है !
मन , रोने को करता है !
बार बार क्यों आज मुझे
सब सूना सूना लगता है !
बड़े दिनों के बाद आज,
पापा सपने में आए थे !
आज सुबह से बार बार बचपन की यादें आतीं हैं !
क्यों लगता अम्मा मुझको
इकलापन सा इस जीवन में,
क्यों लगता जैसे कोई
गलती की माँ, लड़की बनके,
न जाने क्यों तड़प उठी ये
आँखें झर झर आती हैं !
अक्सर ही हर सावन में माँ, ऑंखें क्यों भर आती हैं !
एक बात बतलाओ माँ ,
मैं किस घर को अपना मानूँ
जिसे मायका बना दिया या
इस घर को अपना मानूं !
कितनी बार तड़प कर माँ
भाई की यादें आतीं हैं !
पायल, झुमका, बिंदी संग , माँ तेरी यादें आती हैं !
आज बाग़ में बच्चों को
जब मैंने देखा, झूले में ,
खुलके हंसना याद आया है,
जो मैं भुला चुकी कब से
नानी, मामा औ मौसी की
चंचल यादें ,आती हैं !
सोते वक्त तेरे संग, छत की याद वे रातें आती हैं !
तुम सब भले भुला दो ,
लेकिन मैं वह घर कैसे भूलूँ
तुम सब भूल गए मुझको
पर मैं वे दिन कैसे भूलूँ ?
छीना सबने, आज मुझे
उस घर की यादें आती हैं,
बाजे गाजे के संग बिसरे, घर की यादें आती है !
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ReplyDeleteएक स्त्री के मन की वेदना को शब्द देना सरल नहीं । बहुत सुंदरता से भावों को लिखा है ।
ReplyDeleteआप बहुमुखी प्रतिभा के ही नहीं, असाधारण प्रतिभा के धनी हैं सतीश जी। ऐसी कविता कोई साधारण व्यक्ति नहीं लिख सकता। आपकी यह कविता आपकी प्रतिभा का ही नहीं, आपके व्यक्तित्व में व्याप्त संवेदनशीलता का भी जीवंत प्रमाण है।
ReplyDeleteमार्मिक रचना
ReplyDeleteबहुत ही भावपूर्ण रचना
ReplyDeleteबड़प्पन के साथ बचपन की यादों के तारों को मर्मस्पर्शी यथार्थ के साथ उकेरा है आपने..,आपके सृजन की जितनी प्रशंसा करूँ कम होगी । अति सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।
ReplyDeleteअत्यंत मार्मिक रचना।
ReplyDeleteतुम सब भले भुला दो ,
ReplyDeleteलेकिन मैं वह घर कैसे भूलूँ
तुम सब भूल गए मुझको
पर मैं वे दिन कैसे भूलूँ ?
छीना सबने, आज मुझे
उस घर की यादें आती हैं,
बाजे गाजे के संग बिसरे, घर की यादें आती है !
....आंख भर आयी ...