Saturday, July 30, 2022

पता नहीं माँ सावन में, यह ऑंखें क्यों भर आती हैं -सतीश सक्सेना

याद है ,उंगली पापा की
जब चलना मैंने सीखा था ! 
पास लेटकर उनके मैंने
चंदा मामा जाना था !
बड़े दिनों के बाद याद
पापा की गोदी आती है
पता नहीं माँ सावन में, यह ऑंखें क्यों भर आती हैं !


पता नहीं जाने क्यों मेरा 
मन , रोने को करता है !

बार बार क्यों आज मुझे
सब सूना सूना लगता है !
बड़े दिनों के बाद आज, 
पापा सपने में आए थे !
आज सुबह से बार बार बचपन की यादें आतीं हैं !

क्यों लगता अम्मा मुझको

इकलापन सा इस जीवन में,
क्यों लगता जैसे कोई 
गलती की माँ, लड़की बनके,
न जाने क्यों तड़प उठी ये 
आँखें झर झर आती हैं !
अक्सर ही हर सावन में माँ, ऑंखें क्यों भर आती हैं !

एक बात बतलाओ माँ , 

मैं किस घर को अपना मानूँ 
जिसे मायका बना दिया या 
इस घर को अपना मानूं !
कितनी बार तड़प कर माँ 
भाई  की यादें आतीं हैं !
पायल, झुमका, बिंदी संग , माँ तेरी यादें आती हैं !

आज बाग़ में बच्चों को
जब मैंने देखा, झूले में ,

खुलके हंसना याद आया है,
जो मैं भुला चुकी कब से
नानी, मामा औ मौसी की 
चंचल यादें ,आती हैं !
सोते वक्त तेरे संग, छत की याद वे रातें आती हैं !

तुम सब भले भुला दो ,
लेकिन मैं वह घर कैसे भूलूँ 
तुम सब भूल गए मुझको 

पर मैं वे दिन कैसे भूलूँ ?

छीना सबने, आज मुझे 
उस घर की यादें आती हैं,
बाजे गाजे के संग बिसरे, घर की यादें आती है !

8 comments:

  1. This comment has been removed by the author.

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  2. एक स्त्री के मन की वेदना को शब्द देना सरल नहीं । बहुत सुंदरता से भावों को लिखा है ।

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  3. आप बहुमुखी प्रतिभा के ही नहीं, असाधारण प्रतिभा के धनी हैं सतीश जी। ऐसी कविता कोई साधारण व्यक्ति नहीं लिख सकता। आपकी यह कविता आपकी प्रतिभा का ही नहीं, आपके व्यक्तित्व में व्याप्त संवेदनशीलता का भी जीवंत प्रमाण है।

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  4. मार्मिक रचना

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  5. बहुत ही भावपूर्ण रचना

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  6. बड़प्पन के साथ बचपन की यादों के तारों को मर्मस्पर्शी यथार्थ के साथ उकेरा है आपने..,आपके सृजन की जितनी प्रशंसा करूँ कम होगी । अति सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।

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  7. अत्यंत मार्मिक रचना।

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  8. तुम सब भले भुला दो ,
    लेकिन मैं वह घर कैसे भूलूँ
    तुम सब भूल गए मुझको
    पर मैं वे दिन कैसे भूलूँ ?
    छीना सबने, आज मुझे
    उस घर की यादें आती हैं,
    बाजे गाजे के संग बिसरे, घर की यादें आती है !
    ....आंख भर आयी ...

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- सतीश सक्सेना

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