काफी समय पहले, ब्लाग जगत में अपने अनुभवों को लेकर ,यह हलकी फुलकी रचना लिखी थी शायद आपको आनंद दे !
कुछ कलम छोड़ कर भाग गए
कुछ संत पुरूष भी पतित हुए
कुछ अपना भेष बदल बैठे ,
कुछ मार्ग प्रदर्शक,भाग लिए
कुछ मुंह काले करवा आए,
यह हिम्मत उन लोगों की है,
यह हिम्मत उन लोगों की है,
जो दम सेवा का भरते हैं !
कुछ ऋषी मुनी भी मुस्कानों के, आगे घुटने टेक गए !
कुछ यहाँ शिखन्डी भी आए
तलवार चलाते हाथों से,
कुछ धन संचय में रमे हुए,
वरदान शारदा से लेते !,
कुछ पायल,कंगन,झूमर के
गुणगान सुनाते झूम रहे ,
मैं कहाँ आ गया, क्या करने,
कुछ पायल,कंगन,झूमर के
गुणगान सुनाते झूम रहे ,
मैं कहाँ आ गया, क्या करने,
दिग्भ्रमित बहुत हो जाता हूँ !
अरमान लिए आए थे हम , अब अपनी राहें भूल चले !
अरमान लिए आए थे हम , अब अपनी राहें भूल चले !
कुछ प्रश्न बेतुके से सुनकर
पंडित पोथे, पढने भागें,
पंडित पोथे, पढने भागें,
कुछ प्रगतिवाद, परिवर्तन
के सम्मोहन में ही डूब गए
कीकर, बबूल उन्मूलन की
सौगंध उठा कर आया था ,
मैं चिर-अभिलाषित, ममता का,
मैं चिर-अभिलाषित, ममता का,
रंजिश के द्वारे आ पहुँचा !
ऋग्वेद पढाने आए थे ! पर अपनी शिक्षा भूल चले !!
bahut hi sundar rachna
ReplyDeletebahut bahut badhai
मैं चिर-अभिलाषित, ममता का, रंजिश के द्वारे आ पहुँचा !
ReplyDeleteऋग्वेद पढाने आए थे ! पर अपनी शिक्षा भूल चले !!
xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx
पूरी कविता को पढने के बाद लगा .................बस कुछ न कहें तो बेहतर है .......बेहद विचारणीय पोस्ट तहे दिल से शुक्रिया ....धन्यवाद
क्षमता से अधिक दम्भ भरने में यह सह शीघ्र संभव है। हाँकोगे तो हाँफोगे।
ReplyDeleteहमे अपने सामाजिक सरोकार बहुत सोच समझ कर बनाने चाहिये । आभासी दुनिया हैं जो दिखता हैं होता नहीं हैं । एक आईना हमेशा पास रखे दिखाते रहे खुद को भी औरो को भी । बीच बचाव करने वाले अक्सर दो पाटो मे पीस जाते हैं और पाट वैसे ही रहते हैं । पाटो को ख़तम करने के लिये उनका इस्तमाल बंद करना होता हैं । दो पाटो के बीच मे कुछ होगा ही नहीं तो पाटो की अहमियत ही ख़तम हो जाएगी ।
ReplyDelete@ बीच बचाव करने वाले अक्सर दो पाटो मे पीस जाते हैं और पाट वैसे ही रहते हैं ।
ReplyDeleteरचना जी के इस कथन पर गौर फरमाईयेगा आप, ऐसा ही कुछ मैंने आपको अपनी पंद्रह मई वाली मेल में निवेदित किया था .
बहरहाल अंतस का सरवस निचोड़ के रख दिया है आपने इन पंक्तियों में .................
सुन्दर कविता.
ReplyDeleteबधाई.
हम भी समझ रहे हैं।
ReplyDelete@ रचना ,
ReplyDeleteअमित के ध्यान दिलाने पर तुम्हारा कमेन्ट पढ़ा और तब जाकर अर्थ समझ आया !
काफी हद तक इस बात से सहमत हूँ ...
काम और उद्देश्य तो कुछ और ही था मेरा मगर भाई लोग अधिक चतुर हैं वे बेहतर फायदा उठाना जानते हैं और मैंने यह कभी सीखा ही नहीं ! कोई कक्षा बताओ :-) एडमिशन लूं तो शायद दुनिया दारी सीख लूं ...
अगर फेल होता महसूस करूंगा तो हट जाऊँगा विवश होकर ...सब कुछ तो अपने हाथ में नहीं है !
सादर
ReplyDelete@ अमित ,
अब तुम्हें तो मैं धन्यवाद देने से रहा ...रचना की बात और है !
kavita to apni lagi .... gar aap likhe to kya .....
ReplyDeleteaur haan .... iddi-piddi baton par
urja jaya na karen .... hum pathkon
ka nuksan hota hai....
aise hi gungunate rahiye.....bachhon
ko khil-khilate rahiye
pranam.
nand ke anand bhye,
ReplyDeletejai kanhiya lal ki.
सिर्फ अपनी कहिये ना समाज सुधार की सनक, ना सेवा का कोई भाव , न संत होने का बावा ना दानव होने का दंभ | जब तक इच्छा और समय है तब तक कहा जब नहीं है तो चले गये |
ReplyDeleteना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर
bahut hi sunder aur vichar niya post...
ReplyDeletesabhi line dhyan dene yogya kahi gai hai......... satish ji
सच में आनंद आया पढ़ने में।
ReplyDeleteना संत थे न ॠषि-मुनि,बस भेस बदल कर आते थे।
ReplyDeleteशिखण्डी,मनमौजी वे तो बस भिष्म बलिदान लेते थे।
अभिमानों से भरे हुए,स्वप्रशंसा के भिक्षुक है,
गुलदस्तो के हत्थो में बस शूल छुपाए लाते थे।
बहुत सुन्दर और प्यारी कविता..बधाई.
ReplyDeleteजय हो ... बड़े अनुभवी अंदाज है पोस्ट लिखने का ...वाह वाह वाह
ReplyDeleteकुछ प्रगतिवाद, परिवर्तन
ReplyDeleteके सम्मोहन में ही डूब गए
कीकर, बबूल उन्मूलन की
सौगंध उठा कर आया था ,
मैं चिर-अभिलाषित, ममता का, रंजिश के द्वारे आ पहुँचा !
ऋग्वेद पढाने आए थे ! पर अपनी शिक्षा भूल चले !!
bahut gahre bhaw hain iske piche , bahut badhiyaa
सतीश जी,
ReplyDeleteवैसे तो पूरी की पूरी कविता सच का आइना है
मगर ये पंक्तियाँ गज़ब की हैं ,सोचने पर विवश करती हैं !
कुछ प्रश्न बेतुके से सुनकर
पंडित पोथे, पढने भागें,
कुछ प्रगतिवाद, परिवर्तन
के सम्मोहन में ही डूब गए
कीकर, बबूल उन्मूलन की
सौगंध उठा कर आया था ,
मैं चिर-अभिलाषित, ममता का, रंजिश के द्वारे आ पहुँचा !
ऋग्वेद पढाने आए थे ! पर अपनी शिक्षा भूल चले !!
धन्यवाद !
-ज्ञानचंद मर्मज्ञ
मैं चिर-अभिलाषित, ममता का, रंजिश के द्वारे आ पहुँचा !
ReplyDeleteऋग्वेद पढाने आए थे ! पर अपनी शिक्षा भूल चले !!
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति।
मैं कहाँ आ गया, क्या करने, दिग्भ्रमित बहुत हो जाता हूँ !
ReplyDeleteअरमान लिए आए थे हम , अब अपनी राहें भूल चले !
बहुत गंभीर प्रश्नों को उठाती बहुत ही सुन्दर कविता..
लोग भूलने में एक दूसरे के प्रतिस्पर्धी प्रतीत होते हैं।
ReplyDelete---------
अंधविश्वासी तथा मूर्ख में फर्क।
मासिक धर्म : एक कुदरती प्रक्रिया।
हिंदी ब्लोगिंग में ये उथल पुथल तो चलती ही रहेगी ।
ReplyDeleteबढ़िया ।
कुछ दिनों से एक व्यर्थ सा विवाद स्वयं को श्रेष्ठ दिखाने के प्रयास का (आपके लिये ये बात बिल्कुल भी नहीं) देखने में आ रहा है । इसलिये उपर की टिप्पणियों में से ही एक अंश-
ReplyDeleteना काहू से दोस्ती ना काहू से बैर
बहुत सुंदर।
ReplyDelete..जब आप इतना अच्छा लिख सकते हैं तो इधर- उधर व्यर्थ समय जाया क्यों करते हैं!
बेहद विचारणीय पोस्ट|धन्यवाद|
ReplyDeleteहम दीवानों की क्या हस्ती कल ब्लोग्गर थे अब नहीं रहे.
ReplyDeleteअरे नहीं हैं अभी हम... :)
मैं चिर-अभिलाषित, ममता का, रंजिश के द्वारे आ पहुँचा !
ReplyDeleteऋग्वेद पढाने आए थे ! पर अपनी शिक्षा भूल चले
क्या कहें... कभी कभी सच में मन उचटने लगता है यहाँ से.
हम तो अभी शिक्षा ग्रहण ही कर रहे हैं,सो भूलने का प्रश्न ही नहीं उठता।
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना जी धन्यवाद
ReplyDelete'कबीर तेरी झोपड़ी गल-कटियन के पास ,
ReplyDeleteकरता है सो भरेगा तू क्यों भया उदास !'
सक्सेना साहब, आपकी ये कविता बहुत शानदार है, कालजयी है। हर महीने दो महीने में यहाँ इसकी उपयोगिता जाहिर हो ही जाती है। ज्यादा कुछ कहूंगा तो फ़िर मुद्दे से हटने वाली बात हो जायेगी लेकिन आपके बारे में इतना यकीन हो गया है कि आपने साधु और बिच्छु वाली कहानी सुनी भी है और गुनी भी। तय है कि आप नहीं बदलेंगे। कमेंट सं. तीन पढ़ा तो ये लगा कि ये कह सकने लायक अपन नहीं है, चार नं. पढ़ा तो रचना जी के फ़ैन बन जाने का मन कर आया, पांच नं. वाले के हम पहले से ही मुरीद हैं। अंशुमाला जी का कमेंट भी अच्छा लगा।
ReplyDeleteसच ये है कि आप दुखी दिखते हैं तो दुख हमें भी पहुंचता है। बेशक आप कहें कि हल्की-फ़ुल्की रचना है ये आपकी,लेकिन हमें बहुत भारी-भरकम लगी।
आप यहाँ से जाने की सोच भी नहीं सकते, कल को अपना किसी से विवाद होगा तो हम किस पर भरोसा करेंगे कि कोई है जो बीच-बचाव करवा सकता है? हम तो आपको ’ब्लॉगिंग-ओम्बड्समैन’ माने बैठे हैं:)
शिकवे की हर पंक्ति पर खुद को फिट करने की कोशिश करके देखी , नाकाम रहा ! फिर खुशी हुई कि आपके निशाने पर मैं नहीं हूं :)
ReplyDelete@ मो सम कौन ,
ReplyDeleteइतने सार गर्भित टिप्पणी के लिए धन्यवाद ...आज मूड में लग रहे हो :-)
" सक्सेना साहब " ने हमारे तुम्हारे बीच काफी दूरी पैदा कर रखी है संजय बहुत दिनों से तुम इसे छोड़ नहीं पा रहे और हम इसे स्वीकार नहीं कर सकते :-(
सतीश भाई ...भैया ...कहो तो अच्छा लगेगा और कभी कभी यार ... कहो तो
http://www.youtube.com/watch?v=XoZEkJouqZo
हिन्दी ब्लॉगजगत का सार डाल दिया जी इस रचना में आपने
ReplyDeleteसचमुच कालजयी रचना है और बेहतरीन अभि्व्यक्ति
एक ममता भरे प्यारे दिल से निकली हुई
प्रणाम
जय हो ब्लॉग भाग्य विधाता.........
ReplyDeleteआप कविता बहुत सुंदर लिखते है..... बढिया लगती है.... "मेरे गीत" सही मायने में गीत लगते है..... पर के बार हम जैसे "बुरबक" की पान कि दूकान यहाँ सजाते है तो ठीक नहीं रहता....
ये ज्ञान आपकी कविता पढ़ कर ही अभी प्राप्त हुवा है.
ऋग्वेद पढाने आए थे ! पर अपनी शिक्षा भूल चले !!
ReplyDeleteधर्मेंद्र फिल्मों में नए आए थे...कुछ साल बाद उन्होंने देखा कि हिंदी फिल्मों में बगैर डांस सीखे काम नहीं चल सकता...उन्होंने डांस सीखने के लिए एक मास्टर जी को घर बुलाना शुरू कर दिया...तीन चार महीने बाद धर्मेंद्र तो डांस की एबीसी भी नहीं सीखे, हां मास्टर जी ने धर्मेंद्र के साथ रहते हुए पैग चढ़ाना ज़रूर सीख लिया...
जय हिंद...
जनाब सतीश सक्सेना साहब ! इतनी सुंदर पोस्ट ब्लाग जगत को देने के लिए आपका बहुत बहुत शुक्रिया।
ReplyDeleteऐसा लगता है मानो आपने मेरी पीड़ा को ही स्वर दे दिया हो ।
मैं चाहता हूं कि आप इस ब्लाग को हिंदी के उन तमाम एग्रीगेटर्स पर जोड़ दीजिए जिनका ज़िक्र आज
blogbukhar.blogspot.com
पर किया गया है ।
मेरे ब्लागअहसास की पर्तें की पोस्ट पर कमेंट देने के लिए शुक्रिया ।
आने वाले समय में आप सभी शब्द प्रहरियों का जलवा बढ़ने वाला है क्योंकि एग्रीगेटर्स बढ़ते ही जा रहे हैं। हिंदी ब्लागिंग उत्तरोतर बेहतर होती जाएगी ।
कुछ ऋषी मुनी भी मुस्कानों के, आगे घुटने टेक गए !
ReplyDeleteवाह भाई जी यह तो कालजयी कृति है ......इसमें हम सब अपना मुंह निहार सकते है!
आपने आईना १८० डिग्री हमारी ही और मोड़ दिया है -बड़ी ना इंसाफी है ! :)
@ जनाब खुशदीप साहब !
ReplyDeleteदोबारा आया तो आपके कमेँट पर ठिठकना पड़ा और पेट की गहराई से हंसना भी पड़ गया । हालांकि पूरे संदर्भ को तो समझ नहीं पाया लेकिन आपने एक ट्राजिक पोस्ट पर कॉमेडी क्रिएट करके माहौल की घुटन को काफ़ी कम कर दिया है ।
nice post
पे
nice comment .
:) :)
Thanks .
पतित,
ReplyDeleteभेष बदल बैठे ,
मुंह काले करवा आए,
शिखन्डी
बेतुके
बबूल
रंजिश के द्वारे
गुरुदेव कविता हल्की हो या भारी, क्या शब्दों की धार है... ऐसी कविता कभी हल्की नहीं हो सकती.. एक भोगा हुआ यथार्थ है यह और पंक्ति पंक्ति में अनुभव की गूँज सुनाई देती है.
"मो सम कौन" ने तो बाकी बातें कह दी हैं, मैंने कहा तो पुनरावृत्ति होगी.
नव वर्ष की शुभकामनाएँ!!
अच्छी कविता है सर। बेहद अच्छी।
ReplyDeleteसार्थक रचना ...
ReplyDeleteकल के चर्चा मंच पर आप नहीं आये ..वहाँ आपकी फोटो लगी हुई है ...:):)
वैसे भी आपकी धमकी के सामने डर ही गयी थी :):) केवल मजाक है ....
आपकी यह कविता बहुतों को सीख दे रही है
सीख देती हुई, विचारणीय प्रस्तुति. आभार.
ReplyDeleteसादर,
डोरोथी.