बाबा,ज्ञानी,संत,साध्वी, कितने पावन दिखते हैं !
फिर भी देसी अख़बारों में इनके किस्से छपते हैं !
चूहों से घबरा के हमने,घर में ज़हरी पाल लिया !
तब से, कट्टर बैरी हमसे , कुछ हमदर्दी रखते हैं !
आब ऐ आफताब को लेकर,घर में काहे बैठे हो !
बाहर जाकर करो रोशनी , लोग ढूंढते फिरते हैं !
ताले, दीवारें, दरवाजे, क्या कुछ भी कर पायेंगे !
घर के रखवाले ही कैसे, बदले बदले लगते हैं !
धनुषवाण ले राम के फोटो,दीख रहे चौराहों पे
तब से, सारे बस्ती वाले ,आशंकित से रहते हैं !
क्या बात है !
ReplyDeleteसामयिक रचना।
बहुत सुंदर !
ReplyDeleteलौट आये अच्छा किया :P
सुन्दर प्रस्तुति-
ReplyDeleteसार्थक सन्देश-
आभार आदरणीय-
शुभ संध्या
ReplyDeleteबेहतरीन....
सादर
सुंदर सृजन सार्थक सन्देश !!
ReplyDeleteRECENT POST : बिखरे स्वर.
चूहों से घबरा के हमने ,घर में ज़हरी पाल लिया !
ReplyDeleteतब से कट्टर बैरी हमसे ,कुछ हमदर्दी रखते हैं !
बहुत सुंदर-सार्थक .....
क्या बात है !बेहतरीन....
ReplyDeleteबेहतरीन बहुत ख़ूब
ReplyDeleteताले ,दीवारें ,दरवाजे ,क्या कुछ भी ,कर पायेंगे !
ReplyDeleteघर के रखवाले ही मुझको ,बदले बदले लगते हैं !
बे-मिसाल अभिव्यक्ति
आपके गीतों को पढ़कर बस एक ही शब्द निकलता है हृदय से "वाह"!
ReplyDeleteगीतों का सुर ताल लय यूँ ही सदा सर्वदा बरकरार रहे!
बहुत सुन्दर सार्थक सृजन !
ReplyDeletelatest post: क्षमा प्रार्थना (रुबैयाँ छन्द )
latest post कानून और दंड
बहुत अच्छे सर जी , रवानी और रफ़्तार दोनों ही जुलम ढाए हुए हैं और देसी क्या अब तो बाबे बदेसी अखबार में भी क्रुपा बरसाते दीख रहे हैं
ReplyDeleteबहुत खूब।
ReplyDeleteबाबा,ज्ञानी,संत,साध्वी ,कितने पावन दिखते हैं !
ReplyDeleteफिर भी देसी अख़बारों में इनके किस्से छपते हैं !
सटीक बात कही है !
ताले ,दीवारें ,दरवाजे ,क्या कुछ भी ,कर पायेंगे !
ReplyDeleteघर के रखवाले ही मुझको ,बदले बदले लगते हैं !
बहुत खूब ,सबसे ज्यादा पसंद आई मुझे यह पंक्तियाँ !
ताले ,दीवारें ,दरवाजे ,क्या कुछ भी ,कर पायेंगे !
ReplyDeleteघर के रखवाले ही मुझको ,बदले बदले लगते हैं ..
बहुत खूब ... गहरी बात कह सी सतीश जी आपने ... लाजवाब शेर ...
गहन भाव सुन्दर शब्द संयोजन।
ReplyDeleteआज का यही सबसे बडा दर्द है, बखूबी अभिव्यक्त किया.
ReplyDeleteरामराम.
बाबा,ज्ञानी,संत,साध्वी ,कितने पावन दिखते हैं !
ReplyDeleteफिर भी देसी अख़बारों में इनके किस्से छपते हैं !
वास्तव में जरूरत इनके नंगेपन से समाज को परिचित करने की है.जरूरत है-
-आब-ऐ-आफताब को लेकर ,घर में काहे बैठे हो !
बाहर जाकर, करो रोशनी ,लोग ढूंढते फिरते हैं !
बहुत ही सुन्दर सार्थक सन्देश,सतीश जी आपको बधाई
समाज के सपाट सत्य हैं आपके शब्दों में।
ReplyDeleteVery nice......
ReplyDeleteसंजय त्रिपाठी की ईमेल टिप्पणी :
ReplyDeleteसुंदर! आशंकाओं के होते हुए भी आशंकाओं में जीना नहीं है.सकारात्मकता के लिए आशंकाओं का निवारण और जीवन में विश्वास का होना आवश्यक है.
wah..aaj ke sandarv me sarthak rachna...
ReplyDeleteआज के साधु-बाबाओं का कटु सत्य
ReplyDelete