बरसों से अर्जित, बड़प्पन की चादर को लेकर जीते हम लोग, ३०-४० साल तक कई बार सोचते भी थे कि इस चादर को फ़ेंक, बेफिक्री के साथ,बिना बड़प्पन की परवाह किये, हम भी यह गाना गा पायें कि ....
दिल करदा ...ओ यारां दिलदार मेरा दिल करदा
सदियों जहाँ में हो, चर्चा हमारा ......
मगर शालीनता , और सर्वजन सम्मानित हम लोग चाहते हुए भी यह हिम्मत नहीं कर पाते कि झमाझम होती वारिश में अपने घर के सामने बने पार्क में छप छप करते हुए दौड़ सकें... लोग कहेंगे कि भाई साहब को अथवा मैडम को क्या हो गया है ?
ख़ास से आम बनने का बड़ा मन है, मगर यह जगत सम्मान का प्रभामंडल लिए हम लोग चाहते हुए भी यह बेड़ियाँ नहीं काट पाते ....
क्या आप लोग कुछ रास्ता सुझायेंगे हम लोगों को ??
सतीश जी,
ReplyDeleteमन तो आज़ाद ही है,देख भी लिजिये कितना चंचल हुआ जा रहा है। आवश्यकता तो उसे आत्मवश करने की है।
जिसे हम व्यक्तित्व के पाश में समझ रहे है,वह वस्तुतः हमारे 'मान'(इगो) के पाश में है।
मान छोडते ही व्यक्तित्व खण्ड खण्ड हो जायेगा,मन इतना अनुशासनहीन हो जायेगा कि उसे पुन: आत्मवश करने की आवश्यकता पडेगी।
यदि आत्मवश हो गया तो जीत है।
सतीश भाई पहली बात तो यही कि जिस गीत का आपने जिक्र किया है वह बहुत सकारात्मक गीत है। उसमें जो भाव हैं वे कतई ऐसे नहीं हैं कि जिनसे किसी का अपमान होता है। तो यह गीत तो मुझे लगता है आप गा ही सकते हैं।
ReplyDeleteसमाज से ज्यादा बंधन तो हमारे मन का ही है। केवल बारिश में छपछप करके दौड़ने की बात नहीं है। बस या ट्रेन में भी हम किसी महिला या बुजुर्ग को अपनी सीट देने के पहले इस दुविधा से कितनी बार गुजरते हैं कि जिसे सीट दे रहे हैं वह तो शुक्रिया कहेगा । लेकिन बाकी हमारे बारे में क्या सोचेगें। कैसा बेवकूफ है। लेकिन जब आप इससे उबर जाते हैं तो तुरंत खड़े हो जाते हैं।
अगर सचमुच आपमें यह भाव आता है तो कभी देखिए कि आपके पहले अगर किसी और ने यह काम कर दिया तो आपके अंदर एक तरह की ग्लानि महसूस होने लगती है।
तो मेरे हिसाब से सवाल यह है कि मन क्या कहता है। हां मन की बात भी मान से करो,अपमान से नहीं।
क्या आप लोग कुछ रास्ता सुझायेंगे हम लोगों को ??
ReplyDeleteक्या फ़ायदा रास्ता सुझाने का। करियेगा अपने मन की ही ,जैसे करते आ रहे हैं। बेफ़ालतू में एक सुझाव बेकार कौन करे। :)
बारिश में छपछप करना भी कोई ऐसा काम है जिसके लिए सलाह ली जाए ...
ReplyDeleteसामने वाले पार्क में नहीं तो ...आपका घर तो है ..बालकनी है ...छत है ...!
ये इमेज भी बड़ी कुत्ती चीज है !
ReplyDeleteसतीश भाई आभार कि चर्चा का आगे बढाया।
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स्वतंत्रता दिवस के मौके पर आप एवं आपके परिवार का हार्दिक अभिनन्दन एवं शुभकामनाएँ !
मन को ज्यादा आजादी के पर ना लगें तो ही बेहतर है क्यूंकि ये फिर कल्पना की उड़ान भरने लगता हैं ...मन तो घोडा है और इन्द्रियां उसकी लगाम ...ज्यादा ढील देना ठीक नहीं हैं ...
ReplyDeleteसेवानिवृत्त हो पटिये पर आने पर सब ठीक हो जाता है.
ReplyDeleteSatish Sir!! badi pyari baat kahi aapne......lekin ham to apne dil ko bas ye kah kar sab kuchh karne dete hain....."dil to bachcha hai jee"........:D
ReplyDeleteसुनो सबकी करो अपने मन की....अब जब व्यक्तित्व और कृतत्व मन से बड़े लगते हैं तब आप सोचने पर मजबूर हो जाते हैं ...
ReplyDeleteजब मन इन सब पर हावी हो जाता है तो लोग क्या कहेंगे यह बहुत पीछे छूट जाता है ..
बड़ा मुश्किल है आज के युग में यह सब करना.
ReplyDeleteमेरा ब्लॉग
खूबसूरत, लेकिन पराई युवती को निहारने से बचें
http://iamsheheryar.blogspot.com/2010/08/blog-post_16.html
mann azaad hota hai, agar pinjre me gaya to bhi hamare hi mann se .....
ReplyDelete@अनूप शुक्ल जी ,
ReplyDeleteवाह गुरु , खुद भी भड़के और औरों को भी भड़का रहे हो ! :-)
@ अरविन्द मिश्रा जी ,
ReplyDeleteहा...हां.. हा...हा...
सदाबहार अंदाज़ आपका ...मगर कह ठीक रहे हो
अजीत गुप्ता जी की यह पोस्ट वाकई अच्छी है
ReplyDeleteऔर आपने भी चिन्तन का अवसर प्रदान किया है
सक्सेना साहब डा.अजित जी के ब्लॉग पर मैं यही कमेंट्स दे कर आई थी...व्ही यहाँ पेस्ट कर रही हूँ.
ReplyDeleteडा.साहब वैसे हमारा किसी डा.को सलाह देना तो अजीब लगेगा ना ? लेकिन फिर भी हम इंडियन हैं न सलाह तो मुफ्त ही दिया करते हैं ..:)
तो मेरी मानिए...इस हैसियत की पेहरन को उतार ही फेंकिये....वर्ना वो क्या कहते हैं चित्रगुप्त (यमराज) ने अगर पूछा की अपनी मर्ज़ी से जिंदगी जी है या नहीं और अगर आप ने ना में जवाब दिया तो वो आपको इस मृत्यु लोक में फिर से भटकने के लिए फैंक देगा. फिर आप अमरीका जैसे स्वर्ग को ढूँढती रहेंगी...(हा.हा.हा.)
मेरी बाते बुरी लग रही हों तो क्षमा चाहूंगी.
आपकी पोस्ट आँखे खोल देती है उन सब की जो अपनी केंचुल में छीपे रहते हैं..उन्हें हटा कर एक बार वास्तविक मजा ले जिंदगी का तो पाएंगे सच में की जिंदी हसीन भी है.
mere aane se poorv dono sandardhon me saari baaten ho li hain.....main to post ke sath sath sabhi tippaniyon se sahmat hoon.....
ReplyDeleteshesh shubh..
बेड़ियाँ तो काटनी पड़ेंगी, नहीं तो हाथों में निशान पड़ जायेंगे।
ReplyDeleteऔर सर्वजन सम्मानित हम लोग चाहते हुए भी यह हिम्मत नहीं कर पाते कि झमाझम होती वारिश में अपने घर के सामने बने पार्क में छप छप करते हुए दौड़ सकें...
ReplyDeletekyun...?
kyun nahin daud sakte...???
बहुत सटीक विचार, मन को कौन वश कर पाया है? ज्यादा से ज्यादा मन को thy will be done कहके समझाया जा सकता है. वर्ना तो जो है सो है.
ReplyDeleteरामराम.
आपको देश की स्वतंत्रता दिवस की बधाई.....
ReplyDeleteआपको सलाह देने सूरज को दीपक दिखाने की बात है मेरे लिए। आप तो दूसरों को सलाह देते हैं...
अपन तो खैर बारिश में जबतब भींगने का मजा लेते ही रहते हैं.वरना बारिश ही हमें धो देती है पकड़ कर। करता तो हूं मैं मन की....सत्तर फीसदी। अब ये मन उलटा पुलटा करता रहता है तो क्या करुं।
भाई सतीश जी!
ReplyDeleteमन और व्यक्तित्व से संबंधित प्रश्नों को उठा आपने विचार-मंथन का रास्ता खोला है। ऑनरकिलिंग भी बड़प्पन की चादर से निकलती है। आखि़र दूसरे के जीने का हक़ छीन कर हम कैसे समाज का निर्माण करना चाह्ते हैं? हम बदलाव के बीच खड़े हो कर परिर्वतन के प्रवाह को रोक रहे हैं। प्रासांगिकता खो चुकी कुरीतियों को ढो़ रहें हैं।
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गोलियाँ ऑनरकिलर की
प्रेमियों के चीथड़े हैं॥
चाहती बदलाव दुनिया-
हम न बदलेंगे, अड़े हैं॥
सद्भावी -डॉ० डंडा लखनवी
"तुम खुद ही अपने को बंदी बनाए हुए हो,इसलिए तुम्हीं अपने को स्वतंत्र करा सकते हो ,दूसरा कोई नहीं। "-------------ये पंक्तियाँ मैने मिसफ़िट पर १५ अगस्त को लिखी थी।
ReplyDelete---और उपाय मै बताती हूँ जब मेराअ मन करता है --अपने बच्चों का हाथ पकडती हूँ और साथ मे करती हूँ----छ्प-छ्प......और ---
"कुछ तो लोग कहेंगे --लोगों का काम है कहना छोडो बेकार की बातों में कहीं बीत न जाए बरखा---
सतीश जी ... बस ये छोटी मोटी बेड़ियाँ काटना मुश्किल होता है पहली बार ... एक बार मान को बच्चा बना लो फिर देखें कितना आनद आएगा ...
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