समाज में सड़ी गली मान्यताओं के कारण हम कई बार अपने को शर्मिंदा महसूस करते हैं ! ऐसी कुरीतियों को दूर करने के लिए, हमें तुरंत कदम उठाना होगा अन्यथा अपने ही परिवार में असंतोष और नफ़रत का वातावरण होगा और हमारे हमारी भूल के कारण, अगली पीढ़ी देरसबेर अपने आपको शर्मिंदा पाएगी !
घर के आँगन में लगे हुए
कुछ वृक्ष बबूल देखते हो
हाथो उपजाए पूर्वजों ने ,
इनमे फलफूल का नाम नहीं
काटो बिन मायामोह लिए, इन काँटों से दुःख पाओगे
घर में जहरीले वृक्ष लिए क्यों लोग मानते दीवाली ?
Thursday, October 28, 2010
घर में जहरीले वृक्ष लिए क्यों लोग मानते दीवाली ? -सतीश सक्सेना
35 comments:
एक निवेदन !
आपके दिए गए कमेंट्स बेहद महत्वपूर्ण हो सकते हैं, कई बार पोस्ट से बेहतर जागरूक पाठकों के कमेंट्स लगते हैं,प्रतिक्रिया देते समय कृपया ध्यान रखें कि जो आप लिख रहे हैं, उसमें बेहद शक्ति होती है,लोग अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार पढेंगे, और तदनुसार आचरण भी कर सकते हैं , अतः आवश्यकता है कि आप नाज़ुक विषयों पर, प्रतिक्रिया देते समय, लेखन को पढ़ अवश्य लें और आपकी प्रतिक्रिया समाज व देश के लिए ईमानदार हो, यही आशा है !
- सतीश सक्सेना
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प्रणाम जी
ReplyDeleteअति सुंदर
ReplyDeleteसतीश जी, घर में तो कोई बबूल नहीं बोता। आपकी कविता का भावार्थ कुछ समझ नहीं आया।
ReplyDeleteहाथो उपजाए पूर्वजों ने ,
ReplyDeleteइनमे फलफूल का नाम नहीं
कुछ मान्यताएं तो अवश्य बदलनी चाहियें ....
सादर अनुरोध यह है कि पूरी कविता एक बार ही पोस्ट कर दिया जाय -जितना आनंद उठाना होगा या फिर झेलना होगा एक बार ही हो जाएगा -ये टुकड़ों टुकड़ों का खेल तो नहीं रहेगा :-)
ReplyDeleteया फिर मैं ही बार बार की इन चार लाईनों का तात्पर्य ठीक से नहीं समझ पा रहा ..इसलिए ही पढ़ कर कोई कमेन्ट नहीं कर रहा था -लगता है आप एक रण नीति के तहत इसे दीवाली तक ले जाना चाहते हैं :)
आप छोडिये कोई नहीं मानेगा सब दीवाली मनायेगें ,कवि के कहने से लोग रुकते तो दिवाली कब की बंद हो गयी होती ...
@ अरविन्द मिश्र ,
ReplyDeleteनहीं डॉ साहब कोई रणनीति नहीं है , हमारे समाज की कुप्रथाओं और उसमें फैले भेदभाव के विरोध में लिखी यह लम्बी कविता, को टुकड़ों में लिखने का तात्पर्य ध्यान आकर्षण भर है ! हाँ लोगों को इनमें रस नहीं मिलेगा ! मगर आप को मैं आम पाठक से अलग गिनता हूँ !
सादर
@ अजित गुप्ता जी ,
ReplyDeleteहमारे समाज की कुप्रथाओं और उसमें फैले भेदभाव के विरोध में लिखी इस कविता द्वारा कम से कम अपने परिवार में सही सीख देना है !बबूल के बृक्ष का अर्थ कुल, बिरादरी और प्रथाओं से कुप्रथा और आडम्बर को जड़ से उखाड़ना भर है ! !
सादर
सुन्दर लेखन ।
ReplyDeleteबोया पेड़ बबूल का
ReplyDeleteतो आम कहाँ से होए!
आपके अंतर्मन की असहनीय पीड़ा को ही दर्शाती है भावुक कविता!
सादर अनुरोध यह है कि पूरी कविता एक बार ही पोस्ट कर दिया जाय -जितना आनंद उठाना होगा या फिर झेलना होगा एक बार ही हो जाएगा
ReplyDeleteहम तैयार है :)
badhiya..........:)
ReplyDeleteगुरुदेव! आज जब राष्ट्र पुनः छुआछूत, राष्ट्रद्रोह, धर्मांधता, असहिष्णुता, घृणा, विषवमन, देश की सम्पदा के प्रथम अधिकारी के प्रति विद्वेष, रक्त पिपासा, अश्लीलता, जातीयता, दयाहीनता, सम्वेदनहीनता, सरोकारहीनता, कर्तव्यविमुखता, गौरव से च्यूत होकर अंधकार की एक अनंत कंदरा में निर्जन यात्रा पर अग्रेशित है, तो ऐसे में दीवाली के दियों का आलोक क्या सचमुच उनके हृदय के कलुष को समाप्त कर पाएगा! एक उचित एवम सामयिक प्रश्न ऋंखला के लिए मेरा आभार!
ReplyDeleteगुरुदेव! आज जब राष्ट्र पुनः छुआछूत, राष्ट्रद्रोह, धर्मांधता, असहिष्णुता, घृणा, विषवमन, देश की सम्पदा के प्रथम अधिकारी के प्रति विद्वेष, रक्त पिपासा, अश्लीलता, जातीयता, दयाहीनता, सम्वेदनहीनता, सरोकारहीनता, कर्तव्यविमुखता, गौरव से च्यूत होकर अंधकार की एक अनंत कंदरा में निर्जन यात्रा पर अग्रेशित है, तो ऐसे में दीवाली के दियों का आलोक क्या सचमुच उनके हृदय के कलुष को समाप्त कर पाएगा! एक उचित एवम सामयिक प्रश्न ऋंखला के लिए मेरा आभार!
ReplyDeleteगहन अर्थों वाली एक सशक्त कविता।
ReplyDeleteकुप्रथाओं के खिलाफ और अप्रासंगिक परम्पराओं के खिलाफ मुहिम जरूरी है
ReplyDeleteकुछ मान्यताएं सच में बदलनी चाहिए .
ReplyDeleteआपकी नियत पर कोई शक़ नहीं !
ReplyDeleteआज की टिप्पणी मिथिलेश और आपके नाम !
.
ReplyDelete.
.
सही है जी,
आंगन में अगर बबूल लगा है तो काट फेंकना ही एकमात्र समाधान है!
...
दीवाली क्रम बहुत सी कुरीतियों को उजागर कर रहा है, समाज की।
ReplyDelete@ अली सा ,
ReplyDeleteधन्यवाद अली साहब ...आप बिचित्र हैं :-)
सुन्दर लेखन ।
ReplyDeleteइन कुरीतियों को हमें जड़ से उखाड़ फेकना होगा....यह आह्वान दूर दूर तक पहुँचाया जाए...
ReplyDeleteबोया पेड़ बबूल का
ReplyDeleteतो आम कहाँ से होए!
फिर भी दिवाली कांटे बोने का कोई दुस्ख नहीं?
सतीश जी बेहतरीन कविता
कांटे दार पेड़ कुछ ज़ियादा हो गए हैं.
ReplyDeleteकविता पूरी कर दें.
मेरे ब्लॉग पर आपकी टिप्पणियों का इंतजार रहेगा.
कुँवर कुसुमेश
blog:kunwarkusumesh.blogspot.com
सतीश भाई ... सच में कुछ समझ में नहीं आ रहा है।
ReplyDeleteआप दिवाली का विरोध करना चाह रहे हैं, या कुप्रथाओं का .. या दोनों का। या दीपावली को ही कुप्रथा मानते हैं।
चलिए अपना मत तो दे ही दें, कुप्रथाओं से तो हम साल भर लड़्ते रहते हैं, लड़ते रहें, दीपावली साल में एक दिन मनाते हैं, मनाएंगे।
मुझे देश के इन पारंपरिक त्योहारों में पूरी आस्था है।
@ मनोज भाई ,
ReplyDeleteहर हालत में दीवाली मनाई जाएगी ...हमारे खून में बचपन से रची बसी दीवाली हमसे छुट जाए इसका सवाल ही नहीं पैदा होता !
यहाँ सिर्फ संकेत है कि हम अपनी कुप्रथाएँ छोड़े बिना खुशियाँ क्यों मनाते हैं ! पहले अपने घर से बुराइयों को नष्ट कर अपनी भावी पीढ़ी का भविष्य सुनिश्चित करें तब खुशिया ( दीवाली) मनाएं !
सादर
इंस्टालमेंट वाली पालिसी पर विचार किया जाय :)
ReplyDelete@ अभिषेक ओझा ,
ReplyDeleteमज़ा आया इस मासूमियत पर अब तो कुछ कहना ही पड़ेगा !
कुछ दिन से लिखने का मन नहीं कर रहा था , अतः पुरानी रचना ( जो मुझे बहुत पसंद है ) को इंस्टालमेंट में आप मित्रों को परोस दी !
शिकायतें बढ़ रही हैं ...मालूम है पर थोड़े दिन और मदद नहीं कर सकते .... ..
परिवर्तन आवश्यक है
ReplyDeleteसवाल को ही सूत्र पात माना जावे
ताज़ा पोस्ट विरहणी का प्रेम गीत
हम शिकायत नहीं करेंगे...बैक जा कर पढ़ भी लिए कविता... :)
ReplyDeleteकुप्रथाओं से तो मुक्ति मिलनी ही चाहिए .... सही explanation ...
ReplyDeleteघर में जहरीले वृक्ष लिए क्यों लोग मानते दीवाली
ReplyDeletebahut hee gambheer bat kahee hai aapne ..
बबूल में तो बडे सुंदर हल्दी के रंग के फूल खिलते हैं और बबूल का दातौन भी अच्छा होता है । इसकी लकडी तो कहते हैं देर तक आंच देती है । हां घर में कोई नही लगाता । आप की प्रस्तावना यह कहती है कि पूर्वजों से चली आई कुरीतियों को ढोने में कओ ई अर्थ नही है पर बबूल इतना भी बुरा नही होता कंटीला होता है । हां ।
ReplyDeleteदीवाली और बबूल का संबंध समझ में नही आया ।
badiya panktiyan hain......badhai bhai ji..
ReplyDelete@ आशा जोगलेकर जी
ReplyDeleteदिवाली का तात्पर्य खुशियों से और बाबुल हमारी कुप्रथाएं है !
सादर