Friday, October 4, 2013

हम गुलाम लीक के -सतीश सक्सेना

             विश्व में सर्वाधिक निरक्षर, मूर्ख क्षेत्र में रहते हम लोग, परस्पर रंजिश और असहिष्णुता के कारण, इंसानों पर ही हमले करने की प्रवृत्ति बढती जा रही है और ऐसा करके हम जानवरों की तरह,अपनी शक्तिशाली होने का गर्व, कर लेते हैं ! कंक्रीट के जंगल में रहते, हम असभ्य लोग, धार्मिक किताबों में लिखे आचरणों का अनुकरण कर, अपने बचे हुए ३० -४० वर्ष के जीवन को धन्य मान लेते हैं !           आदिम समाज में अधिकतर दो तरह के लोग रहते थे,एक जो अपने आपको गुरु मानते था तथा इस     जाति पर शासन करने की समझ बूझ रखते थे , उन्होंने सेवकों और अपने अनुयायियों को समझाने के लिए धार्मिक  किताबे और परमात्मा की तरफ से,मनमोहक आदेशों की रचना की, जिनके अनुसार मरने के बाद काल्पनिक स्वर्ग के सुख साधन ,और इस जीवन में आचरण के,तौर तरीके बताये गए !
              दूसरे जो समझने और सीखने योग्य पाए गए, वे अपने गुरु के अनुयायी कहलाये , और समाज में शिष्य और सांस्कारिक माने गए ये लोग, अक्सर गुरु के समक्ष, भीड़ स्वरुप खड़े रहकर, शिक्षा और दीक्षा लेकर अपने को सौभाग्यवान मानते रहे हैं ! नमन,चरनामृत ,दंडवत प्रणाम , मंत्र , दीक्षा और गुरु की बातें याद रखना ही उनके जीवन का प्रथम कर्तव्य होता है ! इन धर्म गुरुओं ने मानव जीवन में कुछ भी व्यक्तिगत नहीं छोड़ा हर जगह पर जाकर, अपने आपको योग्य सिद्ध करते हुए, अनुपालन हेतु आदेश लिख छोड़े !
               इन तौर तरीकों में ,एक आदेश  हर पंथ में स्पष्ट है कि धर्म गुरुओं का आदर अवश्य हो उन्हें राजा से भी बड़ा समझा जाए ! और इन हिदायतों को मानने वालों को, संसार में अच्छा आदमी और न मानने वालों को बुरा आदमी घोषित कर दिया गया यहाँ तक कि  जो इन आदेशों की वैधता को चुनौती देगा उसे समाज से बाहर कर दिया जाये अथवा उसकी जान ले ली जाये !
                स्वाभाविक है, कतार बनाकर इन्हें सुनने वालों के लिए,यह सम्मोहक व्यक्तित्व वाले लोग , सर्वोच्च हो गए और निस्संदेह उस आदिम समाज में यह धार्मिक गुरु ,सामने बैठे और साथ साथ निवास करते मूर्खों में, सबसे अधिक विद्वान् थे !   
                सेवकों ने आदेश मानना सीख लिया , गुरुओं का प्रभाव उनके घर में सबसे अधिक था , माता पिता भी अपने बच्चों को, सबसे पहली शिक्षा, इन आदेशों को सम्मान देने की देते थे ! नतीजा जवान होने से लेकर बुढापे तक हम आपसी प्यार से पहले धार्मिक प्यार का सम्मान करना सीख गए !
                 आज माता पिता  का अपमान वर्दाश्त है मगर धार्मिक शिक्षा का अपमान वर्दाश्त नहीं , खून खौल उठता है, इन सदियों पुराने गुलामों का,और इस गुलामी के आगे अपने खूबसूरत परिवार की बलि भी देने में नहीं झिझकते ! 
                 आश्चर्य की बात यह है कि इस खून खराबे में,नफरत भड़काने वाले, एक भी नेता का बाल बांका नहीं होता एक भी  धार्मिक गुरु पर आंच नहीं आती ,मरते हैं तो बेचारे हम गुलाम और हमारे मासूम बच्चे !!

22 comments:

  1. यशोदा अग्रवाल की प्रतिक्रिया जो मेल से मिली :
    भाई सतीष जी
    आप की आज की पोस्ट में प्रतिक्रिया का डिब्बा नहीं दिखा
    आपकी लिखी रचना की ये चन्द पंक्तियाँ.........

    चोरों को सजा जरूर मिलनी चाहिए
    मगर ईमानदार लोग भी डर जाएँ
    ऐसा माहौल बनाना सही नहीं !
    बाज़ीगरों के सामने भीड़ हमेशा तालियाँ बजाती है !
    हो सकें तो भीड़ का हिस्सा न बनें ...

    .......शनिवार 05/10/2013 को
    http://nayi-purani-halchal.blogspot.in
    को आलोकित करेगी.... आप भी देख लीजिएगा एक नज़र ....
    लिंक में आपका स्वागत है ..........धन्यवाद!

    सादर
    यशोदा

    ReplyDelete
  2. खेद है कि कमेन्ट बॉक्स बीती रात से, गलती से बंद था , अतः काफी मित्रों को असुविधा का सामना पडा होगा . .

    ReplyDelete
  3. सच कहा खामियाजा तो निर्दोषों को ही भुगतना पड़ता है !!

    ReplyDelete
  4. सुन्दर प्रस्तुति
    आभार ||

    रहो इधर या उधर तुम, रहना मत निष्पक्ष |
    डुबा अन्यथा दें तुम्हें, उभय पक्ष अति-दक्ष ||

    ReplyDelete
  5. बिलकुल सही कहा सतीश जी आपने ,बहुत अच्छा आलेख लिखा,ये धार्मिक आडम्बर ऊपर से बनकर नहीं आये जो तत्कालीन शारीरिक ,आर्थिक मानसिक रूप से ज्यादा सामर्थ्य रखते थे उन स्वार्थी लोगों ने धर्म के नाम पर जनता को बाँट दिया आज भी हो रहा है दुःख इस बात का है की शैक्षिक रूप से कमजोर इंसानों के साथ शिक्षित लोग भी इन आडम्बरों के चक्कर में पड़ते दिखाई देते हैं ,ऊपर से धर्म का लबादा औढेंगे और अन्दर से जड़ें काटेंगे ,और आज कल तो ये बाबाओं का चलन /जन्म और हो गया एक तो कडवा ऊपर से नीम चढ़ा रही सही कसार इन्होने पूरी कर दी ,सोच कर शर्म आती है हम आज कहाँ जा रहे हैं क्या वैचारिकता रह गई है ,इस अच्छे विचारणीय मुद्दे पर आपकी ये सार्थक पोस्ट को मैं नमन करती हूँ ,बधाई आपको

    ReplyDelete
  6. हर हालत में निर्दोषों को बचाया जाना चाहिये. सारगर्भित आलेख.

    रामराम.

    ReplyDelete
  7. सटीक और सशक्त आलेख....

    सादर
    अनु

    ReplyDelete
  8. @कंक्रीट के जंगल में रहते, हम असभ्य लोग, धार्मिक किताबों में लिखे आचरणों का अनुकरण कर, अपने बचे हुए ३० -४० वर्ष के जीवन को धन्य मान लेते हैं !
    धार्मिक किताब एक ही है जो सबको मानवता सिखा दे जो अभी बनी नहीं शायद , बाकी सब धार्मिक किताबे आप कहे अनुसार गुलाम बनाने के ही विविध तरीके है ! सटीक आलेख !

    ReplyDelete
  9. बाहर की भीड़ के अलावा भीतर भी एक भीड़ चल रही है नाम,जाती,धर्म,शास्त्र,सिधान्तों की, इसलिए ध्यान का महत्व है, ध्यान इन सबके प्रति जागृत करता है मुक्त करता है, तभी सही मायने में कोई धार्मिक हो जाता है ! काश हम हमारे बच्चों को धर्म नहीं ध्यान सिखा पाते ?

    ReplyDelete
  10. विचारणीय सार्थक सुंदर प्रस्तुति.!

    RECENT POST : पाँच दोहे,

    ReplyDelete
  11. स्वार्थी लोगों ने धर्म के नाम पर जनता को बाँट दिया ..... सतीश जी

    शब्दों की मुस्कुराहट पर ....क्योंकि हम भी डरते है :)

    ReplyDelete
  12. यही तो हो रहा है..

    ReplyDelete
  13. बहुत ही बढ़िया और विचारणीय आलेख है। सचमुच सृष्टि के निर्माण से लेकर अब तक का इतिहास बताता है की सर्वाधिक् खून कट्टरता और सांप्रदायिक सर्वोछ्चता सिद्ध करने के ऊपर ही हुआ है। मुझे तो लगता है की इंसान की स्वाभाविक प्रवृति ही गुलामी और दर की है। तभी तो जन्म के साथ भाग्य का निर्धारण कुंडलियो का आलेख सुरु हो जाता है। तुलसीदास जी कहते है "कारद मन कहु एक अघारा ,देव-देव आलसी पुकारा। भाग्य के भरोसे जीने वाले अपने अवगुण तथा खामियों को ढकने के लिए इन अदाम्बरो का सहारा लेते है बेसक इन्सान के साथ पशु की तरह क्यों न आचरण हो।
    स्वामी विवेकानंद भक्ति योग की विवेचना में एक जगह कहते है की धर्म सम्बन्धी बात सुनना ,धार्मिक पुस्तके पढना धर्म के प्रति आस्था नहीं बताती है बल्कि उसके लिए तो निरतर जूझते रहना पड़ता की अपने अन्दर की पाशविक प्रकृति को कैसे बस में कर सके। आपने बिलकुल सही उधृत किया की इन अडम्बरो के लिए हम पशु प्रवृत स्वभाव ही हर जगह प्रदर्शित करते है। क्योकि शास्त्र और गुरु दोनों शब्दाडम्बर के चक्कर में पड़े हुए है। विवेकानंदजी कहते है की जिनका मन शब्दों की शक्ति में बह जाता है ,वे भीतर का मर्म खो बैठते है। शास्त्रों का शब्दजाल एक सघन वन के सदृश है जिसमे मनुष्य का मन भटक जाता है और रास्ता ढूंढे भी नहीं मिलता। विचित्र ढंग की शब्द रचना।,सुन्दर भाषा में बोलने के विभिन्न प्रकार और शास्त्र मर्म की नाना प्रकार से व्यख्या करना -ये ढोंगी के भोग के लिए है ,इनसे अंतर्दृष्टि का विकास क्षय होता है।
    शायद मनुष्य की अनुवांशिक संरचना में ये प्रवृति मुख्य रूप से शामिल है नहीं तो इतनी लम्बी यात्रा के उपरांत भी हम आदिम युग की बात नहीं करते।

    ReplyDelete
    Replies
    1. एक अच्छी और और ब्लोगेर्स के लिए दुर्लभ टिप्पणी के लिए धन्यवाद, कौशल लाल

      Delete
  14. धर्म तो जोड़ने और सुधारने के लिए होता है।

    ReplyDelete
  15. सही है सतीश जी. प्रवचन कर्ता धर्मगुरुओं की तो क्या कहें, नियम तो ये भी है कि अगर आपने दीक्षा नहीं ली तो उस तथाकथित नरक में जाना तय है, जहां तेल के खौलते कड़ाह आपका इन्तज़ार कर रहे हैं. क्योंकि हमारा धर्म गुरु ही तो अपनी लाठी पकड़वा के हमें स्वर्ग तक पहुंचाने वाला है... टीवी पर प्रवचन करते धर्म गुरुओं की सभाओं में बैठे/नाचते/झूमते/गाते जय जयकार करते लोगों को हुजूम देख के मन तकलीफ़ से भर जाता है.... कुछ न कर पाने का अवसाद ज़्यादा गहरा होता है.. :(

    ReplyDelete
  16. बहुत सही लिखा है सर

    ReplyDelete
  17. बहुत महत्वपूर्ण मुद्दा मगर लग रहा है किसी पुस्तक की प्रस्तावना पढी हो और वह भी अधूरी रह गई हो -विषय विस्तार की मांग करता है !

    ReplyDelete
  18. परम्पराओं की तुलना में विवेक को महत्व देना चाहिए ।

    ReplyDelete
  19. सहमत हूँ काफी हद तक धर्म पूरी तरह से व्यैक्तिक होता है। …।गुरु इशारे भर करता है चलना तो खुद को ही है । यहाँ एक ये भी काबिलेगौर है कि बनाने वाले ने भी हाथों की पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होती |

    ReplyDelete
  20. हम मूल सूत्रों को भुला बैठे हैं।

    ReplyDelete

एक निवेदन !
आपके दिए गए कमेंट्स बेहद महत्वपूर्ण हो सकते हैं, कई बार पोस्ट से बेहतर जागरूक पाठकों के कमेंट्स लगते हैं,प्रतिक्रिया देते समय कृपया ध्यान रखें कि जो आप लिख रहे हैं, उसमें बेहद शक्ति होती है,लोग अपनी अपनी श्रद्धा अनुसार पढेंगे, और तदनुसार आचरण भी कर सकते हैं , अतः आवश्यकता है कि आप नाज़ुक विषयों पर, प्रतिक्रिया देते समय, लेखन को पढ़ अवश्य लें और आपकी प्रतिक्रिया समाज व देश के लिए ईमानदार हो, यही आशा है !


- सतीश सक्सेना

Related Posts Plugin for Blogger,