कितनी बार,करवटें लेकर, सारी रात जगा करता था !
जो विश्वस्त बना जीवन में,अक्सर वही दगा करता था !
हम तो यहाँ ठहर जाएंगे , मगर बुआ यह कहतीं थीं !
जो सराय महफूज़ लगी थी, राही वहीं ठगा करता था !
पता है बरसों से दुनिया को, तुम्हीं अकेले खींच रहे हो !
शायद तुमसे पहले जग में, सूरज नहीं उगा करता था !
वे भी क्या रिश्ते थे मन के, सारी दुनिया फीकी लगती !
सारी रात जगाये मुझको, मन को कौन रंगा करता था !
लगता जैसे अब यह बस्ती, रहने लायक नहीं रही है !
कितने बुरे बुरे दिन देखे , ऐसा नहीं लगा करता था !
( यह रचना दैनिक जनवाणी के २० अक्टूबर २०१३ के रविवारीय परिशिष्ट में , गुनगुनाहट कालम में छपी है , यह सूचना डॉ मोनिका शर्मा ने दी है , उनका आभार ! )
जो विश्वस्त बना जीवन में,अक्सर वही दगा करता था !
हम तो यहाँ ठहर जाएंगे , मगर बुआ यह कहतीं थीं !
जो सराय महफूज़ लगी थी, राही वहीं ठगा करता था !
पता है बरसों से दुनिया को, तुम्हीं अकेले खींच रहे हो !
शायद तुमसे पहले जग में, सूरज नहीं उगा करता था !
वे भी क्या रिश्ते थे मन के, सारी दुनिया फीकी लगती !
सारी रात जगाये मुझको, मन को कौन रंगा करता था !
लगता जैसे अब यह बस्ती, रहने लायक नहीं रही है !
कितने बुरे बुरे दिन देखे , ऐसा नहीं लगा करता था !
( यह रचना दैनिक जनवाणी के २० अक्टूबर २०१३ के रविवारीय परिशिष्ट में , गुनगुनाहट कालम में छपी है , यह सूचना डॉ मोनिका शर्मा ने दी है , उनका आभार ! )
दिल को छू गई यह छोटी सी कविता।
ReplyDeleteलगता जैसे अब यह बस्ती , रहने लायक नहीं रही है !
ReplyDeleteकितने बुरे बुरे दिन देखे , ऐसा नहीं लगा करता था !
बेहतरीन, सुंदर गजल !
विजयादशमी की शुभकामनाए...!
RECENT POST : - एक जबाब माँगा था.
बहुत अच्छी बात,उम्दा ग़जल के साथ।
ReplyDeleteहृदयस्पर्शी गहन अभिव्यक्ति ....सतीश जी ....विजयदशमी की शुभकामनायें .....!!
ReplyDeleteबहुत बहुत सुन्दर....
ReplyDeleteवे भी क्या रिश्ते थे दिल के,अब तक नहीं भुला पाए हैं !
सारी रात जगाये मुझको,मन को कौन रंगा करता था !
मन को छू गयी हर पंक्ति...
सादर
अनु
जो विश्वस्त रहा जीवन में , अक्सर दगा वही करता था !
ReplyDeleteक्यों करते हैं ऐसा लोग कि किसी पर भी यकीन मुश्किल हो !
पता है बरसों से दुनिया को, तुम्ही अकेले खींच रहे थे !
ReplyDeleteशायद तुमसे पहले जग में, सूरज नहीं उगा करता था !
.----- कुछ को ये भ्रम हो जाता है-------- बहुत सुन्दर ......
बहुत सुन्दर अभिव्यक्ति .. आपकी इस रचना के लिंक की प्रविष्टी सोमवार (14.10.2013) को ब्लॉग प्रसारण पर की गयी है ताकि अधिक से अधिक लोग आपकी रचना पढ़ सकें . कृपया पधारें .
ReplyDeleteजिन पर आश्रय अधिक रहा,
ReplyDeleteउन पर ढेरों नीर बहा।
भाई जी ...
ReplyDeleteबुआ जी बिलकुल ठीक कहती थी ........
जोरदार अभिव्यक्ति
ReplyDeleteno words to say .....harek pankti ne dil ko jhakjhod diya utkrish bhaw ........
ReplyDeleteसुंदर रचना अभिव्यक्ति ... बधाई
ReplyDeleteदशहरा पर्व पर हार्दिक बधाई शुभकामनाएं
shnaadar satish sir... tussi great ho :)
ReplyDeleteकितनी बार,करवटें लेकर, सारी रात जगा करता था !
ReplyDeleteजो विश्वस्त रहा जीवन में,अक्सर वही दगा करता था !
कितनी सरलता से सटीक बात कही है, बहुत खूब !
वे भी क्या रिश्ते थे दिल के,अब तक नहीं भुला पाए हैं !
सारी रात जगाये मुझको,मन को कौन रंगा करता था !
बहुत सुन्दर पंक्तियाँ मन को छू गई रचना !
लाजवाब।
ReplyDeleteसहज अभिव्यक्ति
ReplyDeleteअद्वितीय, अभूतपूर्व, अनिवर्चनीय ।
ReplyDeleteबहुत सुन्दर .
ReplyDeleteसुन्दर ,यथार्थ वचन
ReplyDeleteवे भी क्या रिश्ते थे दिल के,अब तक नहीं भुला पाए हैं !
ReplyDeleteसारी रात जगाये मुझको,मन को कौन रंगा करता था !
बहुत सुन्दर .......
अभी अभी महिषासुर बध (भाग -१ )!
बेहद सटीक रचना, शुभकामनाएं.
ReplyDeleteरामराम.
भावमय करते शब्दों का संगम है यह प्रस्तुति
ReplyDeleteबेहतरीन ग़ज़ल हैं ये.
ReplyDeleteवाह बहुत खुबसूरत ग़ज़ल |
ReplyDeleteआज के वक्त में रिश्ते और सोच दोनों ही बदलते हैं
ReplyDeleteपता है बरसों से दुनिया को, तुम्ही अकेले खींच रहे थे !
ReplyDeleteशायद तुमसे पहले जग में, सूरज नहीं उगा करता था --शानदार रचना है आपकी।
बहुत खूब...,😊
ReplyDeleteबहुत खूब....😊
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