गिरिजेश राव का यह कमेंट्स अपने आप में पूरी पोस्ट है जो उन्होंने श्रीमती डॉ अजीत गुप्ता की एक पोस्ट बताओ भारतीयों तुम्हारे पास क्या है ? पर किया है, जिसमें वे देशवासियों से दुखित मन से एक सवाल करते हैं !
"हमारे पास है:
मानव मल से गंधाते सड़क , गलियाँ
धूल धक्कड़ कूड़ा
बजबजाती नालियां
उफनते सीवर
सीवर बगल में बीच सड़क मंदिर मस्जिद
सीवर के ढक्कन पर छनती पकौड़ी
जितने साफ घर उतना ही गन्दा बाहर
सारा देश सड़क किनारे
अनुशासन लापता
किसी की इज्ज़त नहीं
भ्रष्टाचार :
चपरासी से मंत्री तक
ठेकेदार से मज़दूर तक
मास्टर से दरोगा तक
शिष्य से शिक्षक तक
सबकी रगों में खून बन दौड़ता
किस भारत की बात ?
हम सनातन कीड़े हैं
नाली के .
बायो डायवर्सिटी हमीं से बची है.
संवेदना ? कौन परवाह करता है ?
नीम ?
घर के आगे लगाओ तो कमीने
पूरा पौधा ही तोड़ ले जाते हैं
(दातुन से दांत साफ़ रहते हैं)
ज़रा सी तमीज बची है क्या?
यह देश सौ वर्षों में होगा
फिर टुकड़े टुकड़े.
क्षमा कीजिएगा अगर कटु लगूँ
लेकिन हम लोग आत्ममुग्ध
- पशु से भी गए बीते हैं -"
गिरिजेश राव का जवाब हमारे यहाँ गली गली में बिखरी वास्तविकता है ,जिसमें हमने अपने आपको आत्मसात कर लिया है, फिर भी हम रोज अपनी संस्कृति की तारीफ में कसीदे पढ़ते नज़र आते हैं ! अभी हाल में आदतवश, विएंना में चिक्लेट्स को थूकते हुए, मुझे घूरते २-३ लोग निकले तो शायद पहली बार शर्मिन्दगी का अनुभव हुआ कि मैंने यह क्या किया ? मुझे याद है दुकान से निकलते हुए बिल को तुरंत फाड़ कर फेकने की आदत वाला मैं, वहाँ बिल और कागज के टुकड़ों को जेब में रखकर, डस्टबिन ढूँढता था ! धूल का पूरे शहर में नामों निशान ही नहीं था !
क्या हम आज इस कमेन्ट पर सोचने की जहमत उठाएंगे ?? या हमेशा की तरह, मेरी दोस्ती के कारण ,यहाँ एक टिप्पणी देकर आगे बढ़ जायेंगे ??
"हमारे पास है:
मानव मल से गंधाते सड़क , गलियाँ
धूल धक्कड़ कूड़ा
बजबजाती नालियां
उफनते सीवर
सीवर बगल में बीच सड़क मंदिर मस्जिद
सीवर के ढक्कन पर छनती पकौड़ी
जितने साफ घर उतना ही गन्दा बाहर
सारा देश सड़क किनारे
अनुशासन लापता
किसी की इज्ज़त नहीं
भ्रष्टाचार :
चपरासी से मंत्री तक
ठेकेदार से मज़दूर तक
मास्टर से दरोगा तक
शिष्य से शिक्षक तक
सबकी रगों में खून बन दौड़ता
किस भारत की बात ?
हम सनातन कीड़े हैं
नाली के .
बायो डायवर्सिटी हमीं से बची है.
संवेदना ? कौन परवाह करता है ?
नीम ?
घर के आगे लगाओ तो कमीने
पूरा पौधा ही तोड़ ले जाते हैं
(दातुन से दांत साफ़ रहते हैं)
ज़रा सी तमीज बची है क्या?
यह देश सौ वर्षों में होगा
फिर टुकड़े टुकड़े.
क्षमा कीजिएगा अगर कटु लगूँ
लेकिन हम लोग आत्ममुग्ध
- पशु से भी गए बीते हैं -"
गिरिजेश राव का जवाब हमारे यहाँ गली गली में बिखरी वास्तविकता है ,जिसमें हमने अपने आपको आत्मसात कर लिया है, फिर भी हम रोज अपनी संस्कृति की तारीफ में कसीदे पढ़ते नज़र आते हैं ! अभी हाल में आदतवश, विएंना में चिक्लेट्स को थूकते हुए, मुझे घूरते २-३ लोग निकले तो शायद पहली बार शर्मिन्दगी का अनुभव हुआ कि मैंने यह क्या किया ? मुझे याद है दुकान से निकलते हुए बिल को तुरंत फाड़ कर फेकने की आदत वाला मैं, वहाँ बिल और कागज के टुकड़ों को जेब में रखकर, डस्टबिन ढूँढता था ! धूल का पूरे शहर में नामों निशान ही नहीं था !
क्या हम आज इस कमेन्ट पर सोचने की जहमत उठाएंगे ?? या हमेशा की तरह, मेरी दोस्ती के कारण ,यहाँ एक टिप्पणी देकर आगे बढ़ जायेंगे ??
यह गिरजेशराव का महत्वपूर्ण वक्तव्य है, जो यह बताता है कि आजादी के बाद जो टेड़ा-मेड़ा विकासपथ हमने अपनाया यह उसी का प्रतिफल है।
ReplyDeleteटिप्पणी तो याद है ही ...और ऐसा ही सोचते रहे हैं ...
ReplyDeleteमगर आदत रही है हर नेगेटिव में कुछ पोजिटिव खोज पाने की ...
गिरिजेश राव जी द्वारा लिखी गई एक एक बात सच है। लेकिन यह पूर्ण सच नहीं है ।
ReplyDeleteयह भी सच है कि हमारे यहाँ अभी भी मात पिता बच्चों को मरते दम तक सपोर्ट करते हैं ।
परिवार नाम की इकाई बस यहीं मिलती है ।
यहाँ अभी भी दया धर्म का मूल है ।
हम जिन्दा जीव जंतु नहीं खाते --डेलिकेसी कह कर ।
इतना बुरा भी नहीं है अपना देश ।
सतीश जी हमें सोचने चाहिए की हम कहाँ जा रहे है ..विदेशी संस्कृति की ढोल पीट कर हम अपने को बहुत बड़ा समझते है पर और कुछ विदेशियों से सीखे यह हमारे बस की नही बहुत सी ऐसी बातें हैं जिसमें सदियों से सुधार नही हुआ हम १०० साल पहले जहाँ थे वहीं आज भी है और बस भारतीय परंपरा की दुहाई देते रहते है और उसके नाम पर अनेक कुरीतियाँ और अंधविश्वास में जकड़े खुद का ही नुकसान करते है फिर भी आँखे नही खुलती निश्चित रूप से यह एक झकझोर देने वाली सच्चाई है और सबसे बड़ी बात भारत के हर एक व्यक्ति को यह मालूम भी है फिर भी पता नही क्यों अमल शायद बस थोड़े लोग ही करते है....
ReplyDeleteआत्मान्वेषण के लिहाज से गिरिजेश जी की बात महत्वपूर्ण है !
ReplyDeleteजब तक हम सब अपने अन्दर इतनी शक्ति नहीं पैदा कर लेते की हमारे पास जो कुछ हो रहा हैं अगर गलत हैं तो उसके खिलाफ आवाज उठाये तब तक कुछ नहीं होगा । हां सतीश ध्यान देने वाली बात ये जरुर हैं कि जो आवाज उठाते हैं वही हमारे यहाँ गलियाँ खाते हैं । विषय से हट रही हूँ लोग कहेगे लेकिन नारी पुरुष असमानता और वो भी ब्लॉग पर , इसको सही करने के लिये जिस महिला ने भी आवाज दी हैं उसको यहाँ नकारा ही गया हैं । पर किसी के नकारने से लड़ना बंद नहीं करना चाहिये । कोम्फोर्ट ज़ोन से बाहर आकर कुछ करे सब तो ही कुछ होना संभव हैं । लोग बहुत जल्दी {गिव उप } कर देते हैं ।
ReplyDeleteमेरे देश और मेरी संस्कृति मे कोई बुराई नहीं और जो हैं मै उसको बदल ने कि चेष्टा करुगी । मै जैसे रहना चाहती हूँ रह सकूँ अपने देश / संस्कृति मे वो सुधार लाना मेरा कर्तव्य और धर्मं हैं । अपने आस पास जो गलत हैं चाहे सदियों पुराना क्यूँ ना हो उसको बदलना जरुरी हैं ।
ना पसंद का चटका लगाया हैं क्युकी प्रॉब्लम के साथ सोलूशन कि बात भी जरुरी हैं ।
गिरिजेश सही कह रहे हैं। किन्तु हम निर्लज्ज हैं।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
सतीश जी ,नमस्कार ,
ReplyDeleteये सही है कि हमें हर वो चीज़ अपना लेनी चाहिये जो हमें तरक़्क़ी की और अच्छाई की तरफ़ ले जाए ,ये सोचे बिना कि ये गुण किस देश या किस व्यक्ति से संबंध रखता है लेकिन अपने देश की अच्छाइयां
हमारी नज़रों से ओझल क्यों हो जाती हैं ?सड़क पर कचरा फैलाना बहुत ग़लत है लेकिन क्या विचारों की शुद्धता ,संबंधों की प्रगाढ़ता ,मित्रता के सच्चे अर्थों का निर्वहन ,पति पत्नी का अटूट रिशता अधिक महत्वपूर्ण नहीं ?
हमारी भावनाएं सच्ची हैं ,विचार परिष्कृत हैं बस थोड़े civic sense की ज़रूरत है जिसके लिये नई पीढ़ी जागृत हो रही है .
अब जब आप निगेटिव सोचने पर ही आमादा हैं तो कोई क्या करेगा..... ? इंसान को निगेटिव में भी पोजिटिव ही देखना चाहिए... गिरिजेश जी ने सच्चाई तो लिखी है.... जिसको नकारा नहीं जा सकता.....लेकिन आज भी कहीं तो कुछ अच्छा है.... जो भारत को ठीक -ठाक चला रही है.....देखिये...चेंज हमेशा धीरे धीरे होता है.... ग्रैजुयली.... और ज़रा पिछले सालों की ओर देखिये ..... तो हमेशा से अच्छा ही हुआ है.... बात सिर्फ डिसिप्लीन की है.... हमें पहले खुद को डिसिप्लीन करना होगा.... उसके बाद ही व्यवस्थाओं पर चोट करनी होगी..... बात यह भी है की हम लोग यहाँ ब्लॉग पर लम्बी-चौड़ी आदर्शों की फेंकते रहते हैं.... जबकि हम खुद ही सही नहीं हैं.... यहाँ ब्लॉग पर तो लोग ऐसी ऐसी बातें करते हैं.... की ....भगवान् राम भी उनके आदर्श सुनकर .... उन्हें ही भगवान् मान बैठें.... जबकि प्रैक्टिकल कुछ और है......इमप्रैक्टिकल राव साहब ने लिखा है..... पर जिसे प्रैक्टिकल हम लोगों (समाज) ने किया है..... राव साहब ने जो भी लिखा है.... सही लिखा है.... गोमतीनगर जैसी पॉश कालोनी में रहकर इतने अच्छे से ओब्ज़र्व करना सिस्टम को ..... अपने आप में कमेंडीयेबल है.....
ReplyDeleteजहां पांव में पायल,
ReplyDeleteहाथ में कंगन,
और माथे पर बिंदिया,
इट्स हैप्पन ओनली इन इंडिया...
पश्चिमी देशों में लिटरेसी रेट क्या है...और अपने भारत में...
पहले भारत के एजुकेशन सिस्टम को ठीक कर लीजिए...सिविल सेंस लोगों में अपने आप आ जाएगा...उसके लिए अभी शुरुआत करेंगे तो असर दस-बीस साल बाद नज़र आएगा...
जय हिंद...
हर पर्व त्यौहार पर घर आंगन , गलियों को साफ सुथरा करने और स्नान दान की परंपरा थी यहां .. हमारी संस्कृति याद रखने योग्य तो है ही .. विदेशी शासन काल में पराधीन बने रहने की जो घुटृटी पिला दी गयी है .. उसका असर स्वतंत्र होने के बाद भी नहीं समाप्त हो रहा है !!
ReplyDeleteप्रासंगिक पोस्ट है...
ReplyDeleteविचारणीय पोस्ट
ReplyDeletesundar...
ReplyDeleteगिरिजेश जी ने बहुत ही महत्वपूर्ण मुद्दों पर विचारमग्न होने के लिए विविश कर दिया है. उन्हें साधुवाद.
ReplyDeleteइतनी भी क्या बेबसी...अपना अपना कर्म इमानदारी से करना ज़रूरी है बस..फल की चिंता के बिना..
ReplyDelete"कर वमन गरल जीवन भर का"
ReplyDeleteगिरिजेश जी ने चरित्रार्थ कर दिया । वाह ।
विचारणीय बात है , जिस नजर से दुनिया को देखते हैं दुनिया वैसी ही नजर आती है , यही तो संवेदना है और यही वेदना भी है , हमें अपने अपने तरीके से अपने दायरे में जो कुछ भी संभव हो , करते चलना चाहिए । मैं ये नहीं कह रही कि ऐसा नहीं है , ऐसा ही है पर इसके पीछे के कारण भी देख पायें फिर उपाय सोचें । कविता ने बरबस ध्यान अपनी तरफ खींचा ।
ReplyDeleteआप बेवजह परेशान सी क्यों हैं मादाम!
ReplyDeleteलोग कहते हैं तो फिर ठीक ही कहते होंगे
मेरे अहबाब ने तहज़ीब न सीखी होगी
मैं जहां हूं वहां इन्सान न रहते होंगे
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………………………………………………………………
साहिर
बुरा न माने पिछले साठ सालों में अधिकतर कांग्रेस का शासन रहा है....
ReplyDeleteक्या मिला है हमें इस शासन से
लगभग यही सब. नहीं.
अनुशासन देश को महान बनाता है... अगर ये सूत्र है तो हमने अपने देश को स्वानुशासन के अभाव में नरक ही बनाया है.
ReplyDeleteजिस तरह स्कूल में कड़े नियम क़ानून का अनुसरण करते हैं वैसे ही भाव आम सार्वजनिक जीवन में लाने के लिए कठोर नियम तो होने ही चाहिए.
ashiksha.......
ReplyDeleteagyanta.......
.arajakata...
aacharan.....
atyachar.....
ahankar...... sabhee par kaboo pana hoga......
Nakaratmak ravaiya kisee nishkarsh par nahee pahuchaega...............
Aisa mera sochana hai...........
Aabadee........sabse aham choot gaya tha ......ye sare A control me rahana aavshyk hai.....
ReplyDeleteगिरिजेश जी तो हमेशा से ही देश, समाज की स्थिति से संबंधित प्रश्न उठाते रहे हैं। उनके जैसी दस प्रतिशत सोच भी अगर हम लोगों के पास हो जाये तो यहां का नक्शा ही बदल जाये।
ReplyDeleteइस का एक कारण ज़िम्मेदारी से बचना भी है. अपने दुखो के लिए हमेशा सरकार को दोष देते रहना, और हर बात के लिए सरकार का मुँह ताकना,
ReplyDeleteकभी हम भी तो खुद कुछ करके दिखाए, सड़को और पब्लिक प्लेस पर गंदगी ना हो या कम से कम मुझ से तो ना हो...
इतना तो कर ही सकते हैं.
सर जी!
ReplyDeleteदेश में भयावह असमानतायें हैं, अपने अपने इंडिया से किसी भी दिशा में कुछ कोस दूर चलें जायें और हमको भारत मिल जायेगा...ये सफाई, कचरा, भ्रश्टाचार..आदि इंडिया की समस्यायें हैं... भारत तो चकाचौधं से भरी इंडिया की आर्थिक प्रगति को तक भर रहा है!
राष्ट एक बड़े परिवार का नाम है और परिवार में हर सदस्य का मान होता है हिस्सा होता है...देश का एक बड़ा हिस्सा जब बीस रुपये रोज़ पर ज़िन्दा हो (अर्जुन सेन गुप्ता कमेटी रिपोर्ट) तो यह सब बातें मूल्य नहीं रखतीं. सारी व्यव्स्था शोषण पर आधारित है.......हुक्मरान, अपने राजे महाराजे वाले के खोल से बाहर नहीं आ पा रहे हैं....प्रतिभा को हम सम्मान नहीं देते और जात-पात, धर्म और क्षेत्रों में बांटकर अपना ही सत्यनाश कर रहें हैं हम.
विचारणीय टिप्पणी पर सार्थक लेख
ReplyDeleteमेरा व्यक्तिगत मत रहा है कि प्रत्येक क्षेत्र में कानून का पालन सुनिश्चित हो जाए तो बहुतेरी समस्याओं से निज़ात मिले
इस का एक कारण ज़िम्मेदारी से बचना भी है. अपने दुखो के लिए हमेशा सरकार को दोष देते रहना, और हर बात के लिए सरकार का मुँह ताकना,
ReplyDeleteकभी हम भी तो खुद कुछ करके दिखाए,
इतनी बहस हो गई और हमें पता ही नहीं :)अच्छी चर्चा हुई।
ReplyDeleteसतीश जी , आभार स्वीकारें।
इसलिए कि आक्रोश को कुछ और तंतुओं पर आघात करने के लिए फैला दिए
और इसलिए भी कि एक साथी ब्लॉगर की टिप्पणी को इतना मान दिए। अभिभूत हूँ।
गहन निराशा के क्षणों में विवेकानन्द वाणी मुझे सुकून देती है:
"सेतुबन्ध की गिलहरी बनो।"
लेकिन जब मैं चीन, कोरिया वगैरह से भारत की तुलना करता हूँ तो पाता हूँ कि वे मैराथन दौड़ में जुटे हैं और हम मार्निंग वाक में। मन कसैला हो जाता है।
विचारणीय पोस्ट एक दूसरे को कुछ कहने और देश को गरियाने से बेहतर तो शायद ये होगा की हम अभी से प्राण करें की कम से कम हम ब्लोगर अपने स्तर पर अपने आस पास स्वच्छता और सफाई का ध्यान रखें और इमानदारी बरतें
ReplyDeleteअभी पूरी तरह से निराश नहीं होना चाहिए। 1000 साल की गुलामी से आजाद हुआ है देश। उसे कुछ समय तो दीजिए। हर युवा तैयार है।
ReplyDelete@ गिरिजेश राव ,
ReplyDeleteआपको पढना एक सुकून देता है ...काश कुछ गिरिजेश राव ओर मिल जाएँ ! हार्दिक शुभकामनायें !